गोटी / पद्मजा शर्मा
मैं अपनी मर्ज़ी से चलूंगी
रूक गई जितना था रूकना
सीधी खड़ी होऊंगी
झुक गई जितना था झुकना
पर्दा हट चुका है
देख सकती हूँ रास्ता
पा सकती हूँ मंज़िल भी
भयभीत मत करो मुझे कि
चल नहीं पाओगी ये कंटीले रास्ते
कि आसमान ऊंचा है
और तुम छू नहीं पाओगी
गिर जाओगी, गिरकर टूट जाओगी
टूटकर बिखर जाओगी
मैं कोई दर्पण, सूखी टहनी या लता नहीं
कि टूट गई तो जुड़ नहीं पाऊँगी
कि बिन सहारे मर ही जाऊँगी
मैं इन्सान हूँ
जिसकी फितरत में है
गिर-गिरकर संभलना
टूट-टूट कर जुड़ना
रो-रो कर हँसना
मर-मर कर जीना
तुम्हारे दिए हुक्म बजाती रही
मैं गलत थी
अब ऐसा नहीं होगा
विश्वास किया तुम पर
विश्वास तो अब भी करती हूँ
लेकिन ख़ुद पर
मुझे मत बताओ मेरी सीमाएं-क्षमताएं
सब जान गई हूँ
समझ गई हूँ तुम्हारे रचे खेल के उस तिकड़म को भी
जहाँ हर गोटी तुम्हारी जीत के लिए चलती है
क्योंकि वह गोटी तुम हो
चलाने वाले भी तुम
और निर्णायक की भूमिका में भी तुम ही हो
सोच रहे हो, तुम्हें तुम्हारी चाल से मात दूँगी
तुम इतना ही सोच सकते हो
असल में, मैं इस खेल से ही हट जाऊँगी
जिसमें तुमने अपनी मर्जी से
भागीदार बनाया है मुझे
क्योंकि तुम्हें जीतना है
और जीतने के लिए कोई हारने वाला भी चाहिए
पर मुझे जीतना या हारना नहीं
जीना है
इसलिए इस खेल में मैं अपना नाम वापस लेती हूँ
तुम खेलो, खूब खेलो, जी भी खेलो
और दिखाओ तो ज़रा जीत कर।