भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गोधूलि / हरीशचन्द्र पाण्डे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुनिया की रंगत देख चुका वह युगल
धीरे-धीरे चल रहा है

गोधूलि बेला है

मांसपेशियाँ पहले का आकार छोड़ चुकी हैं
काले बाल रूई का आकार ले चुके हैं

न चाल में त्वरा, न आवाज़ में वज़न
वही बोल रहे हैं, वही सुन रहे हैं

चक्की के दो पात हैं ये
चलते-चलते थक गए अब
अपने हिस्से का पूरा पिसान दे चुके हैं दुनिया को

मोटे को महीन बनाया
बहुत सुपाच्य

दोनों चल रहे हैं, हल्का-सा फ़ासला लिए
लगातार घिसने के बाद जैसे पाट ले लेते हैं

न लें, तो टकरा जाएँ बार-बार

बीच में छूट गई यह जगह
वह गलियारा है
जहाँ से हवा गुज़रती है

और स्मृतियाँ भी...।