गोपी ढाबे वाला / सुरेश सेन निशांत
बहुत दिनों बाद हुआ आना
इस पुराने शहर में
वहीं रुकता हूँ
वहीं खाता हूँ खाना
उसी बरसों पुरानी मेज़ पर
उस पुराने से ढाबे में ।
कुछ भी नहीं बदला है
नहीं बदली है गोपी ढाबे वाले की
वह पुरानी-सी कमीज़
काँधें पे पुराना गमछा
बातचीत का उसका अंदाज़ ।
वैसा ही था
तड़के वाली दाल का भी स्वाद
तंदुरी रोटी की महक ।
कुछ भी नहीं बदला
यहाँ तक की ग्राहकों की शक़्लें
उनकी बोल-चाल का ढंग
ढाबे के बाहर खड़े सुस्ता रहे
ख़ाली रिक्शों की उदासी तक ।
उस कोने वाली मेज़ पर
वैसे ही बैठा खा रहा है खाना
चुपचाप एक लड़का
कुछ सोचता हुआ-सा, चिन्तित
शायद वह भी ढूँढ़ रहा है ट्यूशन
या कोई पार्ट-टाईम जॉब
शायद करना है जुगाड़
अभी उसे कमरे के किराया का ।
सोच-सोच कर कुम्हला रहा है उसका मन
कि कर भी पाएगा पढ़ाई पूरी
या धकेल देगा वापिस यह शहर
उन पथरीले पहाड़ों पर
जहाँ उगती है ढेर सारी मुसीबतें-ही-मुसीबतें
जहाँ दीमक लगे जर्जर पुलों को
ईश्वर के सहारे लाँघना पड़ता है हर रोज़ ।
जहाँ जरा-सा बीमार होने का मतलब है
ज़िन्दगी के दरवाज़े पर
मौत की दस्तक ।
हैरान हूँ और ख़ुश भी
दस वर्षों के बाद भी
नहीं भूला है गोपी
अपने ग्राहकों की शक़्लें
पूछता रहा आत्मीयता से
घर-परिवार की सुख शान्ति ।
इस बीच बहुत कुछ बदल गया
इस शहर में
बड़े-बड़े माल सेन्टरों ने
दाब लिया है
बड़े-बड़े लोगों का व्यापार
बड़ी-बड़ी अमीर कंपनियाँ
समा गई हैं बड़ी विदेशी
कंपनियों के पेट में ।
नाम-निशान तक नहीं रहा
कई नामचीन लोगों का ।
पुराने दोस्त इस तरह मिले
इतना भर दिया वक़्त
जैसे पूछ रहा हो कोई अजनबी उनसे
अपने गन्तव्य का पता ।
निरन्तर विकसित हो रहे इस शहर में
उस गोपी ढाबे वाले की आत्मीयता ने
बचाए रखी मेरे सामने मेरी ही लाज ।
सभी पुराने दोस्तों के बारे में भी
पूछता रहा बार-बार ।
खास हिदायत देकर कहा उसने
रोटी बाँटने वाले लड़के को
बाबू जी खाना खाते हुए
पानी में नींबू लेते हैं ज़रूर ।
मैं हैरान था और ख़ुश भी
कि इस तरह की बातें तो
माँएँ ही रखती हैं याद
अपने बेटों के बारे में ।
क्या इतना गहरे बैठे हुए थे
उसके अंतस में हम ।
खाने के बाद गोपी ढाबे वाले ने
मुझसे पैसे नहीं लिए रोटी के
मेरे लाख अनुनय के बावजूद ।
मैं इस तरह निकला वहाँ से
आँखें पोंछता हुआ
जैसे माँ की रसोई से निकला होऊँ
बरसों बाद खाना खा कर।