गोस्वामी तुलसीदास / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
सन्तशिरो, सार्वभौम, कविकुलचूड़ामणि,
पाई तुमने रामनामरूपी चिन्तामणि।
रामरसामृत से अनुप्राणित था तव जीवन,
रामरूपगुणगण का किया काव्यमय प्रणयन।
हिमगिरि-से उन्नत आदर्शों के आराधक,
श्रुतिपथपालक, आर्षज्ञान के तुम उन्नायक।
काल पुरुष तुम, मानवीय संस्कृति के वाहक,
विश्वातीत शक्ति की महिमा के प्रख्यापक।
ज्ञाननीर से पंकमलिन मन-मणि को धोकर,
आप्तकाम तुम बने आत्मवेत्ता लोकोत्तर।
अमर तुम्हारे उद्गारों से आत्म श्लोक कृत,
रहा हमारे विश्वासों का अंग प्रभावित।
ऐसा हो आदर्श कौन-सा श्रुतिप्रतिपादित?
निखिल भुवन यह जिसके अमृत अंश से निर्मित।
बना सके जो भू-जीवन को ज्योति-स्फुलिंगित।
प्रेम-भक्ति की निर्मल रसधारा से प्लावित।
प्रकट हो गया काव्यकल्पद्रुम छन्दवाङमय,
रामचरितमानस के दिव्यरूप में चिन्मय।
महामन्त्र जो इस विराट् लौकिक जीवन का,
ऊर्ध्वमूल अध्यात्मतत्त्व के परिशीलन का।
कितना जिसके सूत्रों का वितान है व्यापक
शब्दों के कितने चित्रों से पत्रलतात्मक।
व्योमविहारी गरुड़ अर्थ का उतरा भ पर,
प्राणवन्त ले स्वर्गपेय आदर्श महत्तर।
जान न पाता विज्ञाता का बोधवान मन,
रह जाता पी तक्र शब्द का तृप्तिमान बन।
करने वाले मर्यादाओं का न अतिक्रमण,
देवकल्प मानव का तुमने किया नव सृजन।
गए तुम्हारी भगवत्ता के शरणागत बन,
बाली, जावा, मलयदेश, सिंहल तक के जन।
बना तुम्हारे काव्यामृत से चिदानन्दमय,
अन्तरंग भारत का प्राणरूप तेजोमय।
कोटि-कोटि जन राम-कथा में तन्मय रहकर,
सोते-उठते, चलते-रहते नित्य-निरन्तर।
क्या न तुम्हारा काव्य चित्रपट ज्योतिसर्गकर,
लानेवाला दिव्यलोक को भूमण्डल पर?
किया भवन निष्पन्न भक्ति का चिर अभिवा´्छित
रामनाम की मूल भिति पर लोकनमस्कृत।
स्वर्णपात्र से परम सत्य का मुख था आवृत,
हटा दिया तुमने उसको मानवता के हित।
पटवितान जो अमृत पुरुष का यह रहस्यमय,
बने, अकुंठित उसका दर्शन कर तुम निर्भय।
नहीं तुम्हारे सत्य चक्षु के दर्पण-तल पर,
डाल सका मदमोह तिमिर आवरण शूल कर।
लगा लिया आँखों में तुमने ऐसा अंजन,
कलि का मल छा सका न उन पर जिसके कारण।
त्रिविध ताप का चढ़ा न तुम पर तीव्र विषम ज्वार,
ले न जा सका राम-बवण्डर तुम्हें कुपथ पर।
युग बन गया काल तुममें आकार ग्रहण कर,
चमक तुम्हारी कृति-आभा से रहा दिगन्तर।
धन्य तुम्हारे काव्यरूप का आश्रय पाकर,
शब्द वाच्य, रस, रीति, व्यंग्य, ध्वनि, अर्थ प्रजागर,
भावसन्धि, भावोदय, भावाभास छन्दगत,
ध्वनि, अभिव्यंजक, पदगत, वाक्य प्रबन्ध वर्णगत।
निखिल ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति को कर संयोजित,
देशों, कालों परिणामों में शतधा कल्पित।
उपनिषदों की ब्रह्मदृष्टि उतरी समतल पर,
उदित हुई सर्वात्मवेदना कलुषतिमिरहर।
किया न स्मरण हृदय से अपने प्रभु का जिस दिन
गिना नहीं जीवन में उस दिन को तुमने दिन।
नभ से भी महनीय नाम की महिमा अतुलित।
राम-बीज में हो उठता चिन्मात्र विभासित।
तिमिरमृत्यु को किया अमृत से तुमने छन्दित,
रहा तुम्हारे आयु-यज्ञ का सूत्र अखण्डित।
सृजन तुम्हारा लोकचेतना में अनन्त वन-
समा गया, नववशीकरण का मन्त्र विमोहन।
चरित तुम्हारा लोक विलक्षण जीवन-दर्शन,
मनन श्रवण जिसका चिरमंगल का आलम्बन।
सुरदुर्लभ मानव-जीवन को जो मर्यादित,
आकर्षण से बार-बार करता आन्दोलित।
उन जीवन-तत्त्वों को तुमने किया प्रतिष्ठित,
ज्ञान-कर्म, वैराग्य, भक्ति जिनमें अनुगंुजित।
ज्योति-अमृत का भेद कह दिया तुमने गोपन,
पुनः पुनः शतबार तुम्हें मेरा अभिवन्दन।
धन्य तुम्हारी कविता तरुमंजरी मनोहर,
प्रेम पुलकमन रामभ्रमर मँडराते जिस पर।
मानवता की केन्द्रपरिधि से मानव बाहर,
बढ़ता जाता दानवता की ओर निरन्तर।
जन-जन का मानस-मन्दिर हो आत्मनियन्त्रित,
सदाचरण की स्वर्णरश्मियों से आलोकित।
देश-काल के प्रांगण में अन्तर्हित चेतन,
ग्रहण कर सके विम्ब सत्य का अग्निपूत बन।