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गोहरा पाथती स्त्री / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
बदबूदार गोबर के ढेर को
भिगोती है पानी से
खींचती है भारी कुदाल से
उसका एक हिस्सा अपनी ओर
बैठती है फिर एड़ियों के बल
कठिन मुद्रा में।
थोड़ा-थोड़ा करके हाथ से
मसलती, मिलाती है गोबर
छाँटकर अलग फेंकती है कूड़ा
एक-सार करके
जोर भर कूटती, माड़ती
थपथपाती है उसे
फिर जमाती है तह पर तह
बड़ी चौकोर पटरी से
देती है सुगढ़ आकार।
इस तरह करती है वह गोहरे तैयार।
घुटने तक लपेटे हुए धोती
कुहनी तक चढ़ाये झुल्ले की आस्तीन
सिर के आँचल को कानों के पीछे खोंसे
गन्दे हाथों से भिनभिनाती मक्खियों को भगाती
बाँह से पोंछती टपकता पसीना
गोबर की बदबू में रोटी-दाल की खुशबू सूँघती
निरर्थक को देती सार्थक आकार
करती है वह गोहरे तैयार।