माना कि  तुम्हें बहुतों ने माना 
बहुतों ने तुम्हारे ज्ञान को पहचाना 
बहुतों को तुम 
उपलब्ध करा सके थे शान्ति 
और बना लिए थे भिक्षु 
लेकिन जगत को पहचान पाने की 
न खुद पाए 
न किसी को दे सके थे कोई चक्षु। 
तुम्हारे जीते जी 
क्यों बिखरने लगा था तुम्हारा 
ज्ञानियों वाला कुनबा?
आखिर कौन सा ज्ञान पाया था 
और सबको दिया था 
जिसमे न संतोष था 
न कोई बिया था। 
तुमने कभी विश्वामित्र को जाना?
अगस्त्य को पहचाना?
ऋषि कुलो और उन कुलपतियों की 
कथा सुनी 
कभी उनकी सामजिक चिंताओं 
की कोई बानगी बुनी ?
तुमने जाना कि राम ने 
राक्षसों पर कैसे जीत पायी?
तुमने जाना कि किसी उर्मिला ने भी 
चुना था पति का त्याग 
लेकिन तुम्हारी तरह नहीं 
उसके त्याग का लक्ष्य तय था 
तुम चोरी से गए 
क्योकि  तुम्हें भय था। 
वह भय तुम्हारे भीतर से 
कभी भी गया ही नहीं 
वह तो तुम्हारे ज्ञान पर भी भारी रहा 
क्योकि तुम्हारा संघर्ष मन का 
अनवरत जारी रहा। 
राम ने लड़ कर भी 
सनातनता को नहीं खोया 
कभी समाज को बांटने वाला 
कोई बीज नहीं बोया 
कृष्ण ने क्रान्ति के बाद 
ख़त्म कर दिया था 
किसी भी बंटवारे का उन्माद 
लेकिन तुमने राम और कृष्ण की
 सारी मेहनत को अपनी अधकचरी 
ज्ञानवाहिनी में बहा दिया 
सामाजिक एकता के 
सनातन किले को ही ढहा दिया 
आचार्यो के ज्ञानकुलो की 
चेतनशील शिक्षा का कर डाला संहार 
बनाकर बौद्ध बिहार 
जिस महल का तुमने 
किया था कथित त्याग
उनसे भी विध्वंसक थी 
तुम्हारे बिहारों में 
ऐश्वर्य और विलासिता की आग 
सच कहती हूँ 
माँ की छाती में ही 
मार दिया तुमने डंक 
गौतम? अब कैसे मिटेगा 
यह कलंक?