गौतम, तुम अपनी राह भटक गए / संजय तिवारी
तुम्हारा तो
आरम्भ ही अवसान था
सृष्टि का व्यवधान था
क्षणिक शान्ति में अथाह कोलाहल
क्षणभंगुर अस्तित्व का आभास हर पल
ऐसा क्या था जिसे जीते हम
ऐसा क्या था जिसे पीते हम।
न जीवन के रंग
न आत्मा की सुगंध
न सृष्टि की नेह
ना पावन सी देह
न कोई इतिहास बोध
ना कोई अव्यक्त क्रोध।
न प्रेम
न परिभाषा
कही नहीं छोड़ी तुमने
किसी तरह की आशा
अविकल और अव्यक्त चेतना को
अंतस की अक्षुण वेदना को
संचारिका का हर पथ बाधित।
न कही कोई प्रवाह
न कही कोई अविरलता
कैसी नीरव थाती लिए घूमते रहे
संवदेना विहीन छाती लिए चूमते रहे।
अंगारो की राख
पीपल की शाख
अपने उस कथित त्याग का
कारण तो बताते
जाते? पर जाने के बाद
जगत के जंजालो से
कोई निवारण तो बताते।
तुम न केशव को छू सके
न राम को बांच पाए
न अतीत को सुना
न भविष्य को गुना
केवल समकालीन चिता के प्रसंग
बिना राग? बिना रंग
परम्पराओ और कर्मकांडो के
तात्कालिक जालो में अटक गए
सच कहती हूँ गौतम
तुम पहले ही दिन
अपनी राह भटक गए।