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गौतम से राम तक / संतोष श्रीवास्तव

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गौतम ने तुम्हे पुत्रीवत
पाल पोसकर बडा किया
और अपनी अंकशायिनी बनाया
तुम चुप रहीं
मन ही मन जिसे(इन्द्र) प्रेम करती थीं
उसे पाने की लालसा के बावजूद
विरोध न कर सकीं
चुप रहीं
उस दिन इन्द्र को सामने पा
रुक नहीं पाई तुम
खुद को ढह जाने दिया
उसकी बाहों में
यह तुम्हारा अधिकार भी तो था
प्यार करने का अधिकार
पर इसके एवज
गौतम के आरोप,प्रत्यारोप
तिरस्कार,शाप?
तुम्हे नहीं लगा कि वह
गौतम का
तुम पर एकाधिकार की समाप्ति का
घायल अहंकार,कायरता और दुर्बलता थी?
तुम चुप रहीं
मूक पत्थर हो गईं
पत्थर बन तुम सहती रहीं
लाचारी,बेबसी,घुटन
बदन को गीली लकडी सा सुलगाती
अपमान की ज्वाला को
तुम्हारे पाषाण वास में
तुम्हारी पीडा के हित
न गौतम आये न इन्द्र
राम ने तुम्हे पैरों से छुआ
तुम पिघल गईं
खामोशी से पदाघात सह गईं
सोचो अहल्या
गौतम से राम तक की
तुम्हारी यात्रा
पुरुष सत्ता की बिसात पर
औरत को मोहरा नहीं बनाती?