गौरैया आती थी / केतन यादव
दुछत्ती और तुलसीचौरा
कभी तुम्हारा स्थाई वास होता था
बालपन में सूप के जाल से
तुम्हें पकड़ कर रख लेना चाहता था मन
पर तुम छूट गयी किसी बालकथा में ।
बोगनवेलिया और अपराजिता की झाड़ियों में
लगे तुम्हारे घोसले वसंत के मंगलप्रतीक थे ,
बंद खिड़की और कमरे अभिशप्त हैं
तुम्हारे आगमन को नन्ही चिरयी ।
बनते हुए शहर के अनगिन कोलाहल में
तुम्हारी आवाज़ खो गयी,
यह समूचा शहर कब्रगाह है
न जाने तुम्हारे कितने पूर्वजों का
बिजली की नंगी तारों के कारण
टीवी में डिस्कवरी चैनल पर
देख सकते तुम्हें
पर सामने नहीं,
यह विडंबना बनेगी
किसी गौरैया संरक्षण का गीत ?
न जाने कितने फुदुक में तुमने नापा था आँगन
और ओझल हो गयी फुदुक में,
न आज घर में आँगन बचा न तुम
कितना भयावह है यह कहना
कि एक समय आँगन में गौरैया आती थी ।