ग्यारह दोहे / योगेन्द्र दत्त शर्मा
१
तुझ-सा कहीं न दूसरा, मैं भी हूँ बेजोड़ ।
यही बात है काम की, बाक़ी बातें छोड़ ।।
२
अन्धकार के वंशधर, लील गए स्वर्णाभ ।
हम कोने में बैठकर, बाँच रहे 'शुभ लाभ' ।।
३
वह तन्मय हैं आप में, आप उन्हीं में मग्न ।
कर्क राशि है आपकी, उनकी वृश्चिक लग्न ।।
४
साधु-साँप दोनों खड़े, किसको करूँ प्रणाम ।
उनका ऊँचा नाम है, इनका गहरा काम ।
५
लिखता है दिन-रात तू, किसे प्रार्थना-पत्र ।
किसको देंगे रोशनी, ये बुझते नक्षत्र ।।
६
सौदा घाटे का नहीं, क्यों हों व्यर्थ शहीद ।
बेच रहे ईमान यदि, सुख तो रहे ख़रीद ।।
७
किनकी थीं कुर्बानियाँ, देश हुआ आज़ाद ।
तू सौदा कर देश का, मत कर उनको याद ।।
८
वह मुद्रा बलिदान की, वह उत्कट विद्रोह ।
यह साष्टाँग प्रणाम अब, यह सत्ता का मोह ।।
९
नर-नाहर बनते रहे, पर थे रँगे सियार ।
सहृदयता की आड़ में, करते रहे शिकार ।।
१०
जँगल में जनतन्त्र का, रहा न संशय मात्र ।
हिरन शिकारी हो चले, बाघ दया के पात्र ।।
११
मैं लघु जल-कण ही सही, सुनिए, महासमुद्र !
समय करेगा फ़ैसला, मैं हूँ या तुम क्षुद्र ।।