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ग्यारह समकालीन दोहे / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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प्रस्तुत हैं अब, बन्धुवर ! दोहे समकालीन ।
कुछ तीखे, कुछ चरपरे, खटमिट्ठे, नमकीन ।।



कुछ तो हैं सीधे-सरल, कुछ हैं ऊटपटाँग ।
प्रस्तुति आवश्यक लगी, यही समय की माँग ।।



अब न रही प्रतियोगिता स्वस्थ हमारे बीच ।
अब हम केवल थाहते, कौन कहाँ तक नीच ।।



कौन, कहाँ, कितना गिरा, इस पर अधिक न सोच ।
नैतिकता, ईमान का, कसकर गला दबोच ।।



अनदेखा कर, बच निकल, सच से आँखें मून्द ।
इतना बड़ा समुद्र है, तू है नन्ही बून्द ।।



मछली आई रेत पर, करने को आखेट ।
ख़ैर मना अपनी ज़रा, मछुए ! जाल समेट ।।



दिखा रहा है अब समय, अपना विकट चरित्र ।
गिरी दिव्यता कीच में, घूरे हुए पवित्र ।।



ठगी देखती द्रौपदी, दर्द लिए निस्सीम ।
चीरहरण में हो रहे शामिल अर्जुन, भीम ।।



सद्गुरु भी अच्छा मिला, दिया खूब गुरु-मन्त्र ।
इस पेचीदा तन्त्र में, सफल सिर्फ़ षड्यन्त्र ।।

१०

जोड़-तोड़ की होड़ का, करके भण्डाफोड़ ।
अब वे ख़ुद शामिल हुए, और बने बेजोड़ ।।

११

हुए मुखौटे आजकल, चेहरों की पहचान ।
अब चेहरे किससे करें, अपना दर्द बयान ।।