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ग्यारह सितम्बर की याद में / कल्पना लालजी

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वर्ल्ड ट्रेड टावर क्या गिरी कोहराम मच गया दुनिया में
चारों दिशाए गूँज उठी शोकातुर सब पल भर में
अच्छा हुआ नहीं कहते दुःख में हम भी साथ हैं
पर प्रश्न यहाँ हजारों उठते अंततः जलते अपने ही हाथ है
हजारों मरते है भूख से लाखों लड़ते बीमारी से
क्यों हम भूल उन्हें जाते जो जूंझे नित नित बेकारी से
आंसू कभी नहीं गिरते दुःख दर्द अकेले वे सहते
टी वी और अख़बारों में उनके चित्र नहीं छपते
ग्यारह सितम्बर की याद में शोक दिवस मनाते है
नहीं जानते क्या हर साल दसियों ग्यारह सितम्बर आते हैं
याद उन्हें रखने की खातिर सड़कों पर फूल चढ़ाते हैं
क्या कभी किसी ने है सोचा उन फूलों की कीमत का
अन्न बाँट खुशियाँ लूटें अब न बांटेहम वादे झूठे
दौड रहे हम किसके पीछे जीतना क्या चाहते

इस दुनिया से किस दुनिया में आखिर जाना चाहते
युद्धों के ये शंखनाद हमे कहाँ ले जाएगे
रक्त रंजित शवों पर चढ़ कर स्वर्ग कौन सा पायेगें
हिंदू का हो चाहे मुस्लिम का रक्त एक सा होता है
लाल रंग की धारा से धरती को डुबोता है
धमाके रोज़ बमों के होते इमारतें क्यों गिरती हैं
विस्फोटक हाथों में लेकर हम अनजाने क्यों बनते हैं
क्या ऐसा करने से सबके सपने पूरे हो जाएँगे
खण्डहर बना कर खुद शहरों को उन पर झंडे फहराएंगें
भूख नहीं मिटती ऐसे न गरीबी ही हटती है
हिंसा के बल पर आज तक किसने दुनिया जीती है
कैसे भूल गए बुद्ध को गाँधी को बिसराया है
रामराज्य के मंत्र को जग ने सदा अपनाया है
ईसा और मुहम्मद की भी तो कुछ ऐसी ही नीति थी
उनको भो तो मानव जन से कुछ ऐसी ही प्रीती थी
बस अब बहुत हो चुका अंत यहाँ करना होगा
देर अगर अब हुई जरा भी तो मानवता को रोना होगा
आग की लपटों में घिर कर जग भस्म हो जाएगा
भाई बंधू न कोई रहा तो शांति कहाँ से पाएगा
मुडकर फिर से देख पीछे गुरुमंत्र तू याद कर
मित्र नहीं शत्रु से भी तू भाई सा प्रेम कर
फिर से सब कुछ पहले जैसा तेरा जीवन हो जाएगा
खुशियाँ गर् बांटी तूने तो मोक्ष सदा ही पायेगा