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ग्रीष्म खण्ड / गेना / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
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आपनोॅ नाटोॅ कद रोॅ देहोॅ के डगमग रँ चाल
चल्लोॅ जाय छै गेना मन मेँ लेलेॅ बहुत मलाल
बहुत पुरानोॅ धोती बान्हलेॅ, कसलोॅ जेना लँगोट
गेना के जिनगी छै; जेना, सर पर लागलोॅ चोट
करलेॅ ऐलोॅ छै गन्दा चीजोॅ सेँ यैं तकरार
बौंसी के गेना लागै छै; वामन के अवतार
लिबिर-लिबिर आँख, गोल चेहरा, अनगढ़लोॅ रँ देह
देहोॅ सेँ अर्जुन बनलोॅ छै; मन सेँ वही विदेह
आगू नाथ नै पीछू पगहा, केकरोॅ होतै मोह
बिनडोबोॅ रँ भटकै छै, दुनियाँ ओकरोॅ लेॅ खोह
भले जेठ के बरसेॅ आगिन, पूस-माघ रोॅ जाड़
मंद्राचल रँ सबसेँ झगड़ै छै गेना रोॅ हाड़
विष्णु केरोॅ वरन। भाग विष्णु के कहाँ छै एकरोॅ
गूहोॅ-मूतोॅ केॅ घीकी रहलोॅ छै केकरोॅ-केकरोॅ
लरपच सौंसे देह, टघै छै, पर चल्ले ही जाय छै
बौंसी भले सुहाबेॅ हरदम; कखनू कहाँ सुहाय छै
लेलेॅ छै दाँया हाथेॅ मेँ बोढ़नी केँ, छोटोॅ टा
जिना उखाड़ी लेलेॅ रेहै मैले के झोंटोॅ टा
खोजी रहलोॅ छै, कन्नेॅ पड़लोॅ छै कूड़ा-कर्कट
साफ अभी होय केॅ रहतै-नाली-हटिया रोॅ पर्पट
”दू दिन के गूहोॅ-मूतोॅ के सब्भे ठियाँ टघार
भगमानोॅ के भूमि के सुलगै छै हेन्हैं कपार
”के नै जानै छै बौंसी भगमानेॅ रोॅ घर छेकै
या आपनोॅ आँखी सेँ नै भगमान मसूदन देखै“
”केकरा है मालूम नै छै कि सागर जबेॅ मथैलै
मनराचल के मथनी सेँ लक्ष्मी तक निकली ऐलै“
”सौ-सौ रतन, चनरमा, अमरित, मंदराचल के कारण
जेकरा बौंसी हिरदय पर करलोॅ छै सौंसें धारण
”देखथैं लगै, समुन्दर मेँ ज्यों उठलोॅ रेॅहेॅ ढेहोॅ
या धरती पर एक्के ठियाँ उतरलोॅ रेॅहेॅ मेहोॅ
”के नै जानै छै है कि भगमानोॅ के कानोॅ सेँ
जे होलै, मारै लेॅ दौड़लै हुनकै ही जानोॅ सेँ
”सौ बरसोॅ तक चलथैं रहलै युद्ध बड़ा ही भारी
राकस केॅ आखिर मेँ देलकै भगमानेॅ नेँ मारी
”पंडा जी बोलै छै-तेॅबेॅ यही पहाड़ उठैलकै
आरो ओकरोॅ माथोॅ पर भगमानेँ राखी देलकै
”लेकिन यहू समैलोॅ छेलै मन मेँ एक ठो डॉेर
बाहर निकली युद्ध करेॅ नै लागेॅ ओकरोॅ धोॅर
”यै लेली पर्वत पर अपनोॅ गोड़ धरी केॅ ऊपर
बैठी रहलै। राकस अभियो भी दबलोॅ छै भू पर
”अभियो भी पर्वत पर बैठलोॅ होलोॅ छै भगवान
जे जोगी छै, देखै छै। सबकेॅ होतै की ज्ञान“
”जे नगरी मेँ इन्दर जी रोॅ कष्ट दूर भै गेलै
जे नगरी मेँ सीता के संग राम ठहरलोॅ छेलै
”ऊ नगरी के दुरगत देखोॅ, मैला हिन्नेॅ-हुन्नेॅ
गोड़ बचैतेॅ निकलोॅ तोहों, जाय लेॅ चाहोॅ जन्नेॅ
”आबेॅ नगरी के लागोॅ के लीला अपरम्पार
देहरी सेँ सड़कोॅ तक टघरै छै मूतोॅ के धार
”जे धरती रामोॅ के गोड़ोॅ सेँ कंचन भेलोॅ छै
जे, सीता पाबी केॅ, आँखी रोॅ अंजन भेलोॅ छै
”रिखी-मुनी रोॅ धरती, एकरा जेकरोॅ बड़ा गुमान
ऊ बौंसी के भाँसोॅ-औकतोॅ सेँ छलनी छै प्रान
”कोय नै सोचै छै एकरोॅ लेॅ जरियो कभी नै कचोट
एक एकल्ले गेना ही भोगै लेॅ एकरोॅ चोट
”जब तक गेना जिन्दा छै बौंसी केॅ खूब घिनाबोॅ
सोना रँ बौंसी केॅ गोबर-गू रोॅ ढेर बनाबोॅ
”बौंसी रोॅ सम्मान-मान लेॅ के सोचै छै आबेॅ
के बैठलोॅ छै सनबै लेॅ? कोय, केकरा जाय सुनाबेॅ
”हमरोॅ कहला सेँ कौनो तेॅ मानतै हमरोॅ बात
देहोॅ के संग दैवें नेँ देलेॅ छै छोटोॅ जात
”छोटोॅ जात, बुझै छै जेकरा बड़ोॅ-बडुक्का लोग
भरी जुआनी मेँ जेना कि होलोॅ भारी रोग
”हमरा की लेना छै ई सेँ, जौनें जना बोहाबौ
कोय कूड़ा सेँ ठेंसी उल्टौ; कोय देखी मुस्काबौ
”आपनोॅ-आपनोॅ धरम निभाबौ, आपनोॅ धरम निभाय छी
पूर्व जनम रोॅ कर्मो के फल लिखलोॅ जे छै, पाय छी
”हमरा की? हम्में तेॅ हेने कूड़ा-कर्कट ढोतेॅ
या ई मिट्टी के किस्मत देखी केॅ रोतें-रोतें’
”कोय दिन एकरोॅ धुरधा मेँ धुरधाहै बनी समैवोॅ
या ई मिट्टी पर तन तेजी सरँगोॅ के सुख पैबोॅ
”जे मिट्टी पर कामधेनू रोॅ किरपा राज करै छै
एकरोॅ कुंडो, पापहरणी मेँ पुन्ने-पुन्न फरै छै
”महाकाल भैरव रोॅ जे धरती बनलोॅ छै आसन
जेकरोॅ सम्मुख हाथ जोड़ी केॅ खाड़ोॅ छै इनरासन
”पर्वत के खोहोॅ मेँ शोभै छै नरसिंह भगवान
जहाँ पहुँचतैं हाथ लगै छै मुक्ति के वरदान
”लखदीपा के भद्रासन, पर्वत के ऊपर खोह
जोगी शिव रोॅ तपोभूमि, जे व्यास मुनि रोॅ मोह
”जे धरती पर वासुपूज्य केॅ मिललोॅ छे निरवान
जहाँ बिराजै छै मधुसूदन साक्छात भगवान
”ऊ मिट्टी मेँ जखनी हमरोॅ पापी प्राण समैतै
ठोकर दै देबै तखनी जों सरँगोॅ लै लेॅ ऐतै’
”एक्के किंछा हमरोॅ जिनगी मेँ छै, जे नै पुरलै,
मरलौ पर देखौं हम्मेँ कि आबेॅ ऊ दिन घुरलै
”हवा उड़ाय केॅ हमरा हिन्नेॅ हुन्नेॅ जाय छिरयैतै
सौंसे बौंसी मेँ हमरोॅ छोटोॅ टा देह समैतै’
”धूल बनी केॅ हम्मेँ ई धरती पर लोटी रहलौं
सुब्बे सुक्खोॅ के जिनगी मौजोॅ सेँ काटी रहलौं
ई सोची केॅ गेना रोॅ मूँ हेनोॅ झलकी ऐलै
चेहरा सेँ गुस्सा-दुक्खो रोॅ सबटा भाव बिलैलै
एक बार सिहरी उठलै ऊपर सेँ नीचेॅ गेना
देहोॅ मेँ गुदगुदी अचोके कोय लगाबै जेना
ठोरोॅ पर नाँचेॅ लागलै कठपुतली रँ मुस्कान
बौंसी मेँ जनमै के ओकरोॅ बढ़ले गेलै गुमान
मन-मन सोचेॅ लागलै ‘जे भी हुएॅ, मतुर नै होतै
हमरोॅ रहतें कूड़ा के ढेरी पर बौंसी सोतै
”गुलगुलैन रँ लागेॅ जेकरोॅ मातृभूमि, ऊ नर की
भूतोेॅ के डेरा जे बनलोॅ छै, ऊ घर भी घर की
”आग लगौ हेनोॅ जिनगी केॅ, जेकरोॅ मिट्टी-देश
वन-वन नाचेॅ सबरोॅ बीचोॅ मेँ, धामिन रोॅ भेष“
सोची केॅ ई गेना बोढ़नी हानी चलाबेॅ लगलै
जानेॅ ऊ देहोॅ मेँ एतना जोर कहाँ सेँ जगलै
गेना आपनोॅ हाथोॅ सेँ जन्नेॅ भी जोर लगाय छै
औकतेॅ -भाँसोॅ बिन्डोबोॅ रँ ऊपर उठलोॅ जाय छै
दाँया-बाँया हाथ चलै छै ओकरोॅ एत्तेॅ रन-रन
जेनाकि लट्टू धरती पर घूमतेॅ रहेॅ हन-हन
घामेॅ लागलेॅ देह, पसीना सेँ लथपथ छै गेना
सरगद होय रहलोॅ छेलै; बरसा सेँ भींगी जेना
छर-छर चूएॅ लागलै ओकरोॅ सौंसे देह सेँ घाम
एत्हौ पर, हाथोॅ पर ओकरा आय छै कहाँ लगाम
लागै छै आयकोॅ बादोॅ सेँ कूड़ा-कर्कट, कादोॅ
कहीं दिखैतै नेँ बींसी मेँ, अइये दिखै छै आधोॅ
बोढ़लोॅ धरती, घामोॅ सेँ भिंजलोॅ लागै छै हेनोॅ
पूजा वास्तें नीपलोॅ-पोतलोॅ ऐंगने रेहेॅ जेन्होॅ
होड़ चली रहलोॅ छै गेना आरो तमतम लू मेँ
के जानेॅ कि जीत केकरोॅ आय होतै ई दू मेँ
धूप छेकै या खौल्लोॅ पानी या नरभक्षी बाघिन
या ऊपरोॅ सें बरसै छै टोकरी के टोकरी आगिन
होॅ-होॅ गरम हवा सेँ हू-हू होय रहलोॅ छै शोर
पीठ जरी रहलोॅ छै गेना रोॅ सूखै छै ठोर
बढ़ले जाय छै रौद, सुरुज माथोॅ पर चढ़लोॅ आबै
भाँती मेँ तपलोॅ लोहोॅ के गेन्दे रँ दिखलाबै
चौंधियाबै छै आँख, मुँदी ई जाय छै अपने आप
धूप छेकै या बुतरू के गालोॅ पर कसलोॅ थाप
एक्को ठो लोगोॅ रोॅ कन्हौं दरस दिखाबै छै की
गल्ली-कुच्ची, बहियारी मेँ आबै-जाबै छै की
बिन मनुक्ख रोॅ बौंसी तेॅ श्मशान दिखाबै छै
गेना छेकैेेे? या शिव जी ही धुनी रमाबै छै
सब नुकलोॅ छै घर मेँ; जेना, पुलिस-डरोॅ सेँ चोर
बाहर नादिर नाँखी रौंदेँ जुलुम करै घनघोर
एक बार तड़पी उठलै रौदी सेँ हेने गेना
छोॅड़ धिपाय केॅ दागी देलेॅ रेॅहेॅ ओकरा जेना
लेकिन फेरू कामोॅ मेँ तन-मन सेँ लागी गेलै
आग सुरुज के ओतनै ओकरौ मेँ भी जागी गेलै
हाथ चलेॅ लगलै दायाँ-बायाँ मेँ ओकरोॅ रन-रन
जेना कि लट्टू धरती पर घूमतेॅ रहेॅ हन-हन
आगिन पर चढ़लोॅ खपड़ी रँ धरती तपतेँ रहलै
गोड़ गेना के जेकरा पर लाबा रँ फुटतेँ रहलै
ई देखै लेॅ बाहर छै ताड़ोॅ पर खाली गिद्ध
एकदम इस्थिर आँख, जरा मुँदलोॅ, औघड़ रँ सिद्ध
बीच-बीच मेँ गरमी सेँ चिकरी उठ्ठै छै हेनोॅ
पूत मरै पर बेहोसी मेँ माय चिहाबै जेहनोॅ
ई तपासलोॅ दिन मेँ अनचोके ही जैतै जान
ठारी पर बैठलोॅ कौआ के हक-हक करतेँ प्राण
तहियो बोढ़नी पर नाँचै गेना रोॅ अँगुरी गिन-गिन
ऊपर सेँ बरसी रहलोॅ छै टोकरी-टोकरी आगिन
आखिर थक्की केॅ सुरुजो पच्छिम मेँ डूबी गेलै
रँग सुनहला किरनोॅ के गेना रोॅ मूँ पर खेलै।