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घड़ी-घड़ी तो ग़ज़ल की ही याद आती है / कैलाश झा 'किंकर'

घड़ी-घड़ी तो ग़ज़ल की ही याद आती है
जनाब आज न कल की ही याद आती है।

चमक-दमक तो किसी और को नज़र आती
मुझे तो रूहे-फ़जल की ही याद आती है।

डगर पर आँख गड़ी हैं सुबह नहीं आई
नयन हैं झील तो डल की ही याद आती है।

तमाम उम्र गुज़र जाए ग़ज़्ल की खातिर
शुरू हुए थे वह पल की ही याद आती है।

करीब हैं जो मेरे दिल के आशियाने से
खिले-खिले से कमल की ही याद आती है।