घन-सावन की रंग-लहर में / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
पर्वत के समान मेघों ने घेर लिया है,
ताम्रनीलगैरिक दिगन्त के दुर्ग-शृंग को!
तिमिर-धूम से रवि का रत्न-किरीटी ढक गया!
दिवस-नाट्यशाला में जैसे छाया का आवरण पड़ गया!
पùराग-सा अरुण गगन का वर्णपटल है!
आच्छादित सित, कपिश, कृष्णिमन मेघखण्ड से!
दिनमणि की निर्धूम किरण-ज्वाला से तप कर,
मेघ-कलश की जलधारा से सि´्चित हो कर,-
त्याग रही है वाष्प धरा चिर सन्तप्ता-सी!
हरितवर्ण दु्रमतोरणवाले भू के वन में,
जैसे लगी हुई दारुण दावाग्नि बुझ रही!
कज्जल, घटादार मेघों का मर्म भेद कर
चमक रही अरुण-शोण विद्युत् की रेखा-
कटे मांस-पिण्डों से निकली रुधिर-धार-सी!
चली सिन्धु की ओर वेग से नदी उमड़ कर
जल-प्रवाह का फेनिल, पंकिल चीर पहन कर!
अनजाने ही जैसे यौवन की हिलोर से
फूट पड़ा हो वक्ष धरा का आत्मदान की आकुलता में!
प्रकृति-नटी हो उठी मुग्ध, उत्फुल्ल नहा कर
घन-सावन की नयनमनहरण रंग-लहर में!
बड़ी बड़ी बूँदे अम्बर से लगीं टपकने
पवन-गमन के संग-संग प्यासी पृथिवी पर!
चित्र-विचित्र वनस्पतियों के बीज वर्ष-भर,
भूमण्डल के गर्भ-कोश में रक्षित रह कर;
पुनः फूट निकले गर्भ-कोश में रक्षित रह कर;
हल्के और गुलाबी फूलों के गुच्छों से
सजी हुई कस्तूरी रस का पान कर रही-
मधुवर्षी श्रावण के अ´्जनवर्ण मेघ से!
हिरनखुरी के सुन्दर पर्णचीर धारण कर
निज नवीन स्वप्नों को पृथिवी रूप दे रही!
तरु-वृन्दों ने भुज-वल्लरियों को लचका कर
बाँध लिया लतिकाओं को मृदु आलिंगन में!
अन्तर्मन मे बार-बार कम्पन-तरंग भर,
आर्द्र पवन उद्दाम वेग से लहराता है!
जैसे रूपवती के अ´्चल की झपेट से,
सहसा अंग-अंग रोमा´्चित हो उठता है!
चमका कर क्षण-भर निज स्वर्ण-पंख विद्युत् खग,
अन्तरिक्ष के नील नीड़ में छिप जाते हैं।
लहरों के संगीत छन्द के फूल खिला कर
हो जाते जैसे निमग्न हैं गहन सिन्धु में।
भू-प्रांगण से, विपिन-वाटिका से, दिगन्त से
सुन्दरता का रंग-चित्र नूतन इंगित में-
आकर्षित कर रहा सहज स्वच्छन्द भाव से;
विविध रूप में, छन्द-वर्ण में अन्तर्मन को।
नवजीवन की प्राणदायिनी अमृत बिन्दु से,
वन, बंजर, पर्वत, भूखण्ड, तड़ाग भरे रहे।
प्रीति-नदी की नृत्य-तरंगित जलधारा में
घृणा-द्वेष के कुत्सित, मृण्मय पंक बह रहे।
(‘विशाल भारत’, जुलाई, 1958)