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घरनी केॅ दरद / अवधेश कुमार जायसवाल

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भोर भेलै भोरकबा उगलै मुर्गा दै छै बांग,
कन्हाँ पर हल, हाथ कलेवा
खेतवा गेलै किसान।
धतर-पतर औंघैली उठलै
हाथोॅ में लेलकै बोढ़नी
धीया दरवाजा नीपै
नै संभलै छै ओढ़नी।
बच्चा-बुतरु आगिन तापै
गोयठा गेलै ओराय
की जारी केॅ भनसा करबै
की खैबै हे दाय ?
कच्चा जरना धुइयां दै छै
अखिया जैतै फूटी
जो रे छौड़ा धनमा जोग
दुशमन लेतौ लूटी।
बाप तेॅ दिन-रात खटै छौ
तोरा चढ़लौ मसती
जों बापोॅ केॅ साथ नै देबै
खेतवा रहतौ परती।
गैया डिकरै, बछड़ा डिकरै
बकरी खोजै घास
पौनि, पसारी, नौवा धोबी
सब केॅ टुटतै आस।