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घर-घर की सीता भयभीता / विमल राजस्थानी

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तुलसी उदास, तुलसी निराश
तुलसी हताश
रामायण तो बस, मात्र ग्रन्थ
भूले-बिसरे सब पुण्य-पन्थ
घर-घर की सीता भयभीता
रावण करते हैं मनचीता
मर्यादा पुरूषोत्तम न रहे
जन को जन-गीता कौन कहे
चिल्लाते हैं हम ‘राम-राम’
जपते मनकों पर मात्र नाम
कथनी-करनी में अन्तर है
कज्जल-काला अभ्यन्तर है
जकड़े, बाँधे हैं अष्ट-पाश
तुलसी उदास, तुलसी निराश
तुलसी हताश
सोचते महाकवि खिन्न, क्लांत
अतिशय चिन्तित, अतिशय अशान्त
क्या इसीलिए था मथा सिन्धु
झर-झर बिखरे थे स्वेद-बिन्दु
त्यागा था गृह-सुख, स्वजन मोह
झेला था रत्ना का विछोह
ये नीति-वाक्य, यह अमर सीख
मांगेंगे दर-दर दया-भीख
रामायण पर अक्षत-चन्दन
तुलसी का घर-घर अभिनन्दन
पैदा न हुआ पर एक राम
चिरनिद्रारत हैं परशुराम
कैबरा-नृत्यरत है सीता
बिखरी पन्ने-पन्ने गीता
भीतर तम, बाहर है प्रकाश
तुलसी उदास, तुलसी निराश
तुलसी हताश
यदि एक राम पैदा होता
तो देश न पतनोन्मुख होता
ये राजनिति के कुटिल हाथ
ये साँपनाथ, ये नागनाथ
भारत माँ को डँसते न कभी
डँस-डँस कर यों हँसते न कभी
कुटियों से उछल-उछल पापों-
के गढ़ में यों बसते न कभी
फुटबॉल न बन पाती जनता
घर-घर गृहयुद्ध नहीं ठनता
लक्ष्मण यों होते दक्ष नहीं
घूरते बहन का वक्ष नहीं
चीन्हते नहीं वे कर्णफूल
चीन्हते मात्र वे चरण-धूल
असुरों का राज नहीं होता
जन-सेवक (?) बाज नहीं होता
शोषण का चक्र नहीं चलता
कल्मष न पुण्य को यूँ छलता
जन-जन के भीतर जातिवाद-
हिंसा का अनल नहीं जलता
भारत में होता रामराज
तुलसी पा लेते मूल-ब्याज
देवता यहाँ बसते होते
तृण-तृण, कण-कण हंसते होते
सार्थक हो जाता शिलान्यास
तुलसी उदास, तुलसी निराश
तुलसी हताश
शब्दों-भावों का यशःगान
सुन-सुनकर बहरे हुए कान
कीर्तन में बँध रह गये राम
जो चाहा हुआ न सिद्ध काम
तीर्थों में, तट-तट, धाम-धाम
गुंजित केवल श्रीराम-नाम
भव-बंधन कटने को कृपाण
बन गयीं दवाएँ ‘राम-बाण’
मर्यादित हो पाया न देश
व्यापित दिशि-दिशि में दुःख क्लेश
अपहरण-लूट में हुए सिद्ध
सिंहासन पर होते न गिद्ध
हत्याओं का चलता न दौर
आतंक न छाता ठौर-ठौर
जीता रावण, तुलसी हारा
बुझ गया भभक कर अंगारा
करूणा से विगलित राम-दास
बुझ सकी न जन-मंगल-सुप्यास
तुलसी उदास, तुलसी निराश, तुलसी हताश