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घर कहाँ है / नारायणलाल परमार
Kavita Kosh से
घर कहाँ है अब हमारा
सिर्फ़ जंगल रह गया है
घास-फूस की छत है केवल
बरामदे में बिछी चटाई
अलमुनियम की एक डेगची
बरसों पहले घर में आई
सो रही अधपेट प्रतिदिन
यही मंगल रह गया है
खालीपन है सारे घर में
पड़ा हुआ है चूल्हा ठंडा
भेदभरा व्यापार न कोई
और न कोई वाद-वितण्डा
अँधियारे से जूझे ढिबरी
एक दंगल रह गया है
रात-रात भर कीट पतंगे
केवल गुर्राते रहते हैं
ऊपर-ऊपर रोज़ हमारे
बस, षड़यँत्र यहाँ बहते हैं
सिर्फ़ सूखी आँख का
सूना कमंडल रह गया है ।