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घर का न घाट कऽ / विनय राय ‘बबुरंग’
Kavita Kosh से
धोबी के कुक्कुर 85, घर कसे घाट कऽ।
सुने न बात देवता ह लात कऽ॥
गांव-गांव धूमि-धूमि पत्तल के चाटेला जेही क चाटेला ओही के काटेला धावेला हर दम दिन चाहे रात क धोबी क कुक्कुर हऽ, घर क न घाट क॥
उल्टे बा चोर ई हमनी के डांटे -
गांधी क जय कऽ ई परसाद बांटे - गुप्त हत्यार हऽ थाह बा न बात कऽ,
धोबी क कुक्कुर हऽ, घर क न घाट कऽ॥
खा-खा के दूसरे क केतना मोटा गइल
मिलल जे ओकरा के ठाढ़े चबा गइल
राजनीति करत बा जाति अउरी पांत
कऽ, धोबी क कुक्कुर हऽ, घर क न घाट क॥
स्वार्थ के पुजारी ह, बाति क दुधारी -
इहे ह राज-काज मसला सरकारी
साफे चिन्हा जाला उल्लू ह काठ कड,
धोबी क कुक्कुर हऽ, घर क न घाट कऽ॥