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घर की याद-4 / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

अब ये आँखें बाहर के सुख से
उदासीन अति होकर के
अपने ही दुख के सागर में
धीरे-धीरे हैं ढलक रहीं

अब इन्हें न बहला पाएगी
इस सारे जग की सुन्दरता
कोई भी रोक नहीं सकता
अब आँसू का झरना झरता