भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर की याद-4 / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
Kavita Kosh से
अब ये आँखें बाहर के सुख से
उदासीन अति होकर के
अपने ही दुख के सागर में
धीरे-धीरे हैं ढलक रहीं
अब इन्हें न बहला पाएगी
इस सारे जग की सुन्दरता
कोई भी रोक नहीं सकता
अब आँसू का झरना झरता