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घर के बुख़ार में / शिरीष कुमार मौर्य

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गए दिनों की बातें
कभी आने वाले दिनों की बातें होंगी
मैं ग्रीष्म में मिलूँगा

वर्षा इस वर्ष कम होगी
शरद से मैं कभी आया था
हेमंत में मैं अभी रहा था
शिशिर मेरा घर है इन दिनों

वसंत को मैं सदा देखता रहा
बिना उसमें बसे
मेरे रितुरैण में
चैत्र मास

वसंत के अंत नहीं
ग्रीष्म के
आरंभ की तरह रहता है
ओ मेरी सुआ

इतना भर साथ देना
कि इस ग्रीष्म में मेरा रह पाना
रह पाने की तरह हो
जैसे कोई रहे

कुछ दिन अपनी ही किसी आँच में
बुख़ार में रह रहा है
न कहें लोग