भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर के मिटने का ग़म तो होता है / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
घर के मिटने का गम तो होता है
अपने मलबे पे कौन होता है
ख़ुशबू ए गैर तन से आती है
बाजुओं में तुझे समोता है
मेरे दिल आंसुओं से हाथ उठा
कैसी बारिश से ज़ख्म धोता है
शाम होते ही मेरी पलकों पर
कौन ये हार से पिरोता है
रात के बेकराँ अँधेरे में
कोई जुगनू की नींद सोता है