घर में सफ़ेदी / मिथिलेश श्रीवास्तव
एक गेंद मिली
बच्चा खोज रहा था उसे कई दिनों से
गेंद को हवा में उछालता वह ख़ुश हुआ
पुरानी चिट्ठियों के एक पुलिन्दे में
कई चेहरे थे
बहनों की चप्पलों की नाप थी
ऊन के रंगीन नमूने थे
दादा जी के बारे में कोई चिट्ठी नहीं थी
१९४७ के पहले ही वे मर चुके थे
छड़ी की प्रतीक्षा में ख़ुश थे पिता बुढ़ापे में
माँ को कुछ ख़ास नहीं कहना था
अब्बास मियाँ का एक ख़त था
कठिनाई से उनको मेरा पता मिला था
वे खफ़ा थे ख़तों के जवाब न मिलने से
उन दिनों की तारीफ़ थी
जब आबाद खेतों से गुज़र कर उनके घर
मैं जाता था
छिपकलियाँ सहमी हुई थी
कई दिनों तक नहीं दिखीं
कई दिनों तक झींगुर की आवाज़ नहीं आई
अक्सर सन्नाटे में खो जाने वाली सुई मिली
वह भोर में एक दिन खो गई थी
शहर में जैसे खो जाते हैं
बच्चे पिता और मित्र
कुछ नए चम्मच भी मिले
हम लोग सोचते थे
घर सुनसान पाकर महरी उठा ले गई होगी
मकड़ी के बड़े-बड़े जाले
टूट गए थे
कुछ मकड़ियाँ मारी गईं
कुछ भाग गईं पड़ोस में
कुछ छिप गईं दीवारों की दरार में
मकड़ियों की निर्मूल करना आसान नहीं था
कुछ बचे रहना ज़रूरी था
आदमी में उम्मीद की तरह
एक गुच्छा चाभियों का मिला
कुछ तालों की इस बीच दूसरी चाभियाँ बन चुकी थीं
कुछ ताले फेंके जा चुके थे
कुछ को ज़ंग खा गया था
कुछ चाभियाँ थीं जिन्हें हम नहीं खोजना चाहते थे
जिनके मिलने पर हुआ कुछ अफ़सोस-सा ।