घर से चले गए मित्रो ! / सुतिन्दर सिंह नूर
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घर से चले गये मित्रो !
अब लौट भी आओ।
इससे पहले कि
खेत तड़प कर बंजर हो जाएँ
मिट्टी की प्यास मर जाए
बालियाँ भूल जाएँ मूक जुबाँ में बोलना
पंछी भूल जाएं परों को तौलना
घर से चले गये मित्रो !
अब लौट भी आओ।
इससे पहले कि
प्रतीक्षा, प्रतीक्षा करते-करते बूढ़ी हो जाए
क्षितिज की ओर ताकती आँखें पथरा जाएँ
सपने, उदास शामें, अंधेरी रातें
कभी शमशान और कभी कब्र बन जाएँ
घर से चले गये मित्रो !
अब लौट भी आओ।
इससे पहले कि
सितारे भूल जाएँ गर्दिशें
अंतरिक्ष बिखर जाए चिंदी-चिंदी होकर
रंगों-सुगंधों के अर्थ गुम हो जाएँ
रातें सुर्ख सूर्यों को पी जाएँ
घर से चले गये मित्रो !
अब लौट भी आओ।
इससे पहले कि
विषधर समय को डस लें
निगल जाएँ तुम्हारे कदमों के निशान
और बहुत दूर निकल गये तुम
बिसरा बैठो पगडंडियाँ, चरागाह और मुंडेरें
घर से चले गये मित्रो !
अब लौट भी आओ।