भोर की
पहली किरन से
पुलक –भरा
स्पर्श पाया ,
जैसे शिशु नींद में
रह-रहकर मुस्कराया ।
धूप उतरी
घाटियों में ,
ज्यों उतरता
सीढ़ियों से
पीठ पर लादे हुए
बस्ता किताबों का
एक छोटा
अबोध बच्चा ।
और जादू रौशनी का
धरा पर
उतर आया ।
बह उठी है
भीड़ सड़कों पर
पनाले –सी
छा गई गर्मीं
ढलानों पर
और वक़्त
थके चूर-चूर बच्चे –सा
कुनमुनाया । -0-(28-9-1989; वीणा जून 97)