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घातों में कुछ नहीं मगर हाँ बातों में कुछ तो दम है ! / ललित मोहन त्रिवेदी

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घातों में कुछ नहीं मगर हाँ बातों में कुछ तो दम है !
अंधों को भी बेच दिया है मैंने सुरमा क्या कम है !!

तुम्हें भले संसार दिखाई पड़ता हो केवल सपना !
लेकिन मुझको तो लगता है जुल्फों में अब भी ख़म है !!

यूँ ही नहीं गँवाई हमने जान बेवजह पंडित जी !
खंज़र उसके हाथ सही पर आँख अभी उसकी नम है !!

जबसे कारा की खिड़की पर तूने ज़ुल्फ़ बिखेरी है !
तबसे सजा सुनाने वालों के चेहरों पर मातम है !!

अब तो इन जंजीरों को ही हमने पायल मान लिया !
लोहू तो रिसता रहता है , लेकिन पाँव छमाछम है !!