घाव तो अनगिन लगे / कीर्ति चौधरी

घाव तो अनगिन लगे
कुछ भरे, कुछ रिसते रहे,
पर बान चलने की नहीं छूटी !

चाव तो हर क्षण जगे
कुछ कफ़न ओढ़े, किरन से सम्बन्ध जोड़े,
आस जीवन की नहीं टूटी !

भाव तो हर पल उठे
कुछ सिन्धु वाणी में समाए, कुछ किनारे
प्रीति सपनों से नहीं रूठी !

इस तरह हँस-रो चले हम
पर किसी भी ओर से संकेत की
कोई किरन भी तो नहीं फूटी !

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