भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घास गढे गइल रहलू भोर हीं सबेरे, छोटकी ननदी हो / महेन्द्र मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घास गढे गइल रहलू भोर हीं सबेरे, छोटकी ननदी हो,
काहे भइलें इतना अबेर। छोटकी।
घसिया ना ले के अइलू कहऽ साँचे-साँचे हलिया छोटकी ननदी हो,
कहवाँ लगवलू अतना देर।
देहिया घूमिल भइलें सूखल मुँहवाँ, छोटकी ननदी हो,
काहाँ लागत भूतवा के फेर। छोटी।
रात दिन घूमतारू गलिया से गलिया, छोटकी ननदी हो
नइहर में कइलू त बसेर। छोटकी।
घरवा के काम तोहरा मनहीं ना भावे, छोटकी ननदी हो,
खोजत फिरे रसिया घनेर। छोटकी।
घरवा के काम तोहरा मनहीं ना भावे, छोटकी ननदी हो,
खोजत फिरे रसिया घनेर। छोटकी।
कहलें महेन्दर देखि तोहरो चलनियाँ, छोटकी ननदी हो,
होई जइबू एकदिन अनेर। छोटकी।