भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घिर गया है समय का रथ / शमशेर बहादुर सिंह
Kavita Kosh से
मौन संध्या का दिए टीक
रात
काली
आ गई
सामने ऊपर, उठाए हाथ-सा
पथ बढ गया ।
घेरने को दुर्ग की दीवार मानों-
अचल विंध्या पर
कुंडली खोली सिहरती चांदनी ने
पंचमी की रात ।
घूमता उत्तर दिशा को सघन पथ
संकेत में कुछ कह गया ।
चमकते तारे लजाते हैं
प्रेरणा का दुर्ग ।
पार पश्चिम के, क्षितिज के पार
अमित गंगाएँ बहाकर भी
प्राण का नभ धूल-धूसित है ।
भेद उषा ने दिए सब खोल
हृदय के कुल भाव,
रात्रि के, अनमोल ।
दु:ख कढ़ता सजल, झलमल ।
आँख मलता पूर्व-स्रोत ।
पुन:
पुन: जगती जोत ।
घित गया है समय का रथ कहीं ।
लालिमा से मढ़ गया है राग ।
भावना की तुंग लहरें
पंथ अपना, अंत अपना जान
रोलती हैं मुक्ति के उदगार ।
(१९४६ में लिखित)