भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घुटने न टेक देना तू पत्थर के सामने / कैलाश झा 'किंकर'
Kavita Kosh से
घुटने न टेक देना तू पत्थर के सामने
हथियार डालना न मुक़द्दर के सामने।
हर रोज़ हो रहा है तमाशा मैं क्या करूँ
कुत्ता भी भोंकता है मेरे घर के सामने।
शायद उसे पता ही नहीं है गुबार का
नदियाँ उछल रही हैं समन्दर के सामने।
बेखोफ घूमने का गया बीत अब समय
आया करो सबेर डरो डर के सामने।
ऐसा नहीं कि लोग सभी हैं बुरे यहाँ
बातें करो अदब से ही अफसर के सामने।
निकला हूँ यार घर से हँसी ओठ पर लिए
अच्छे से अच्छे दृश्य हों किंकर के सामने।