घृणा का आचमन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
11
करते रहे
घृणा का आचमन
जर्जर हुआ तन
विषबेल ही
सदा सींचते रहे
मूँदकर नयन ।
12
पिघला चाँद
पर तेरे दिल की
पिंघली नहीं शिला
दुनिया यहाँ
इक बाज़ार बनी
पर तू नहीं मिला /
13
ये मोड़ सभी
पाताली अँधेरे हैं
कहीं भी नहीं जाते
खड़े वर्षों से
तुम -सा कोई आता
गीत नया गा जाता ।
14
तपती शिला
निर्वसन पहाड़
कट गए जंगल
न जाने कहाँ
दुबकी जलधारा
खग-मृग भटके ।
15
झीलें है सूखी
मिला दाना न पानी
चिड़िया है भटकी
आँखें हैं नम
लुट गया आँगन
साँसें भी हैं अटकी ।
16
घाटी भिगोते
रहे घन जितने
वे परदेस गए
रूठ गए वे
निर्मोही प्रीतम -से
हुए कहीं ओझल ।
17
शीतल जल
दो बूँद पिया जब
उनको नहीं भाया ।
ज़हर पिया
जब भरके प्याका
वे बहुत मुस्काए ।
18
छाती चूर की
चट्टानों की भी ऐसे
पीड़ा दहल गई ।
विलाप करे
दर-दर जा छाया
गोद हो गई सूनी ।
19
झील का तट
बिखरी हो ज्यों लट
मचलती उर्मियाँ
पुरवा बही
बेसुध हो सो गई
अलसाई चाँदनी
20
तोड़ती मौन
घास में छुपी हुई
टोकती टिटहरी
झाँकते तारे
‘झात’ कह शैतान
सोते न रात भर ।