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घृणा के साथ सहवास सम्भव नहीं / दिनकर कुमार
Kavita Kosh से
घृणा के साथ सहवास सम्भव नहीं
सम्भव नहीं है
अपनी इच्छाओं के ख़िलाफ़
कीट-सा जीवन जीना
आदेशों-अध्यादेशों में गुम
हो चुका है भविष्य और
बीमे के किस्तों में बँट चुके हैं
सपने
अपनी आवाज़ भी लगती है
अजनबी की आवाज़
अपनी परछाईं भी लगती है
शत्रु की परछाईं
इसी तरह बुनते हैं जाल
इसी तरह अपने वजूद को
बन्दी बनाते हैं हम
जीवन को उज्ज्वल बनाने के लिए
घृणा के साथ सहवास सम्भव नहीं
और वनवास के सारे
रास्ते बन्द हैं
घृणा के आलिंगन में
कोमल भावनाओं का जीवित रहना
सम्भव नहीं है