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घोंसला / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
वह रोज़ एक तिनका रखती है पेड़ पर
इस पेड़ में इस तरह एक घोंसले की शुरूआत होती है
जब मैं उठूंगा एक सुबह तो पाऊंगा कि समूचा पेड़
इस घोंसले के अन्दर आ गया है
यह आश्चर्य है विशाल घोंसले को देखकर कहेंगे लोग
नहीं यह घटनापूर्ण प्रारम्भ है पेड़ और चिड़िया के बीच
घोंसले में धूप की तरह चमकते हैं तिनके
हवा में पंख की तरह फड़फड़ाते हैं
अद्भुत्त लगता है तिनकों के साथ पेड़ का हिलना
पेड़ और घोंसले से बहुत दूर घर कितना मौन है
उससे ज़्यादा उत्साह मेरी इन अंगुलियों में है
जिससे छू जाते हैं तिनके
तिनके मेरी स्मृतियो में तरंगित होने लगते हैं
और जब मैं लिखता हूँ घोंसला
तो मुझे बार-बार छूटे हुए घर की याद आती है