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चंदन वन था / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव
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सुनते आये
यहीं कहीं पर
चंदन वन था नदी किनारे
चंदन वन था
लेकिन उसमें
रहते तरु थे भाँति-भाँति के
किस्से कोई
नहीं उठे थे
छुआछूत के जाँतिपाँति के
एक-दूसरे
से सब लिपटे
मगन नृत्य में नेह सँवारे
दूर कई
देशों से आकर
खगकुल रचते नीड़-बसेरा
उनके गुंजन
से ही करता
सूरज वन में रोज सबेरा
हमें मिली थीं
मुखरित-मुखरित
हरियाली को ओढ़ कछारें
चंदन वन में
ऋषि आश्रम थे
यज्ञ हवन की गंध उठी थी
उसको लेकर
पूत हवाएँ
देश-देश के द्वार फिरी थीं
लगता रिश्ते
देह धरे थे
जब भी मिलते साँझ-सकारे