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चंदा रोज निकलता है / धीरज श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
रात-रात भर मुझे निहारे केवल छलता है !
सपनों के आँगन में चंदा रोज निकलता है !
हौले-हौले तन-मन छूती
पुरवाई महकाती है !
दिखा-दिखाकर दर्पण मुझको
तरुणाई बहकाती है !
चुपके-चुपके इन आँखों में कोई पलता है ।
सपनों के आँगन में चंदा रोज निकलता है ।
नजरों में बस जुगनू चमके
हँसे चाँदनी नीम तले !
लिपट कल्पना करे ठिठोली
दूर राह में दीप जले !
आस-पास यूँ लगता जैसे कोई चलता है ।
सपनों के आँगन में चंदा रोज निकलता है ।
मुँद-मुँद जाएँ खुद से आँखें
देह गुलाबी हो जाये !
लिए अनछुए पल आँचल में
प्रीति गीत ही बस गाये !
रंग लबों पर फूलों का ज्यों कोई मलता है ।
सपनों के आँगन में चंदा रोज निकलता है ।