भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चंपई दिन लौट आए हैं / संतोष श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घर की चहारदीवारी में
कोने में लगा चंपा
उस बरस
चंपई फूलों से लद गया था
एक कारवां मेरे भीतर से
होकर गुजरा था
एक गर्द
लिपट आई थी मुझसे
कुछ लाल मखमली
बीरबहूटियां भी
चल कर आई थीं मुझ तक

फिर बरसों बरस
उस गर्द ने ,उन बीरबहूटियों ने
मेरे वजूद को ढंक कर
मुझे चैन न लेने दिया
भटकते कदमों की तलाश को
कहीं विराम न मिला

घर की चहारदीवारी में
आज जब लौटी हूं
तो रो पड़ी हैं दीवारें
मेरी चुप की जमीन पर
रखा है कदम
लाल मखमली आवाज ने

और चंपा बिन बहार
खिल उठा है
और गर्द झर रही है
और खुशबू सी लिपट आई है
कि दिल हौले से धड़का है