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चंबल / राकेश कुमार पटेल

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कल शाम जब चंबल
डूबते हुए सूरज की
ललाई हुई चुनर लपेट के
इतरा रही थी और
उसके पुल से गुज़रते हुए
ट्रकों से आवारा रेत
अठखेलियाँ करती हुई
बवंडर रच रही थी

ठीक उसी वक्त
राजधानी में लोकतंत्र
सफ़ेद काग़ज़ों पर मुहरबंद हो
लोहे के कनस्तरों में क़ैद हो रहा था
और छल-कपट के ईमानदार-धंधेबाज़
अपनी चालों पर इतरा रहे थे

टेलीविज़न पर चौबीसों घंटे
चपर- चपर करनेवाली चापलूसी
मुँह से फेंच्कुर फेंक रही थी

तभी मेरी नन्ही सी बेटी ने
रोज की तरह पूछा था
"पापा, आज घर कब तक लौटोगे?"
और सैकड़ों मील दूर बैठे
निरुत्तर मेरी उँगलियों ने
फोन का लाल बटन छू लिया था
और बातचीत का सिलसिला
न चाहते हुए भी टूट गया था।

लोग अपनी जीत पर खुश थे
रेत के बवंडर गहराती रात के साथ
और घनीभूत होने लगे थे
हमने गेस्टहाउस के कंबल में
अगली सुबह तक के लिए
खुद को खामोशी से समेट लिया था।