चकमक पत्थर / अनामिका
जब-तब वह मुझे टकरा जाता है ।
दो चकमक पत्थर हैं शायद हम
लगातार टकराने से
हमारे बीच चिनकता है
आग का सँक्षिप्त हस्ताक्षर
बस, एक इनिशियल
जैसा कि विड्राअल फ़ार्म पर
करना होता है
कट-कुट होते ही ।
क्यों होती है इमसे इतनी कुट-कुट आख़िर ?
क्या खाते में कुछ बचा ही नहीं है ?
खाता और उसका ?
उसका खाता, बस, इतना है
वह खाता है
धून्धर माता की कसम
और धन्धे की
‘पेट में नहीं एक दाना गया है
अगरबत्तियाँ ले लो — दस की दो !’
इस नन्हें सौदागर सिन्दबाद से कोई
कहे भी तो क्या और कैसे ?
बीच समन्दर में उलटा है इसका जहाज़ ।
अबाबील की चोंच में लटके-लटके
और कितनी दूर उड़ना होगा इसको
इस जनसमुद्र की दहाड़ रही लहरों पर ?
वह मेरे बच्चे से भी कुछ छोटा ही है ।
एक दिन फ़्लाईओवर के नीचे मुझको दिखा
मस्ती में गोल-गोल दौड़ता हुआ ।
‘ओए, की गल है ?
अकेले-अकेले ये क्या खा रहा है ?’ मैंने जब पूछा,
एक मिनट को वह रुका, बोला हँसकर
‘कहते हैं इसको ईरानी पुलाव ।
सुबह-सुबह होटल के पिछवाड़े बँटता है !
खाने पर पेट ज़ोर से दुखता है,
लेकिन भरा हो तो दुखने का क्या है !
तीस बार गोल-गोल दौड़ो
फिर मज़े में थककर सो जाओ !
खाना है ईरानी पुलाव ?’