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चक्रवाकवधुके / अज्ञेय
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'चक्रवाकवधुके! आमन्त्रयस्व सहचरं। उपस्थिता रजनी।'
गोधूली की अरुणाली अब बढ़ते-बढ़ते हुई घनी,
वधुके, जाने दो सहचर को अब है उपस्थिता रजनी!
दिन में था सुख-साथ, किन्तु अब अवधि हो गयी उस की शेष-
पीड़ा के गायन में हो स्वप्नों का कम्पित नयन-निमेष!
रजनी है अवसान; समाप्त प्रणय है, पर देखो? सब ओर-
विरह-व्यथा की है विह्वल रक्तिम रागिनी बनी अवनी!
वधुके, जाने दो सहचर को अब है उपस्थिता रजनी!
1935
इस छन्द की पहली और तीसरी पंक्ति ब्राउनिंग की एक कविता की पंक्तियों का स्वच्छन्द अनुवाद है।