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चट्टान की आँख / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
जान-पहचान
नहीं चलती पीढ़ियों तक
पीढ़ियाँ ढूँढ़ती हैं
पहचान के निशान !
निशान...
तारों की तरह दमकते हैं
पीढ़ियों की सोच में ।
सोच...
आदमी के जिस्म को
घूँट-घूँट पीता है
कमतर होते हुए
आदमी का जिस्म
चट्टान होता है ।
चट्टान की आँखें
पीढ़ियों को
बहुत ध्यान से पढ़ती हैं—
पढ़ती हैं उनके दुख-सुख
उनका जीवन-जगत
और जब गढ़ती हैं
बूढ़े हाथों में कोई कृति
पीढ़ियाँ ढूँढ़ती हैं उसमें
अपना खानदान !
नहीं चलती,
नहीं चलती पीढ़ियों तक
जान-पहचान ।