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चतुर्थ सर्ग (शुभाशंसन) / राष्ट्र-पुरुष / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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तुम जिधर बढ़ो, पग-पग सगठन अशेष रहे
जब खंग उठे, होठों पर जयति स्वदेश रहे

जननी की रचना हुई कि वह
ईश्वर की ईश्वरता
पृथ्वी पर लिये चले
आँधी न बुझा दे दीपक को
इसलिये स्नेह वह दिये चले

जननी विकसित करती प्रतिभा
उत्प्रेरित करती भावों को
आकार विचारों को देती
शक्तियाँ स्फुरित करती अपार
अंकुरित बीज नूतन करती
चेतनायुक्त, आदर्शों का
आलोक-रश्मियों से
पथ को देती सँवार

जननी है ऐसा उत्स
जो कि सूखता नहीं
हम स्वाद न जिसका कभी भूलते जीवन में
सर्वत्र और सबकाल हमारा हित बसता
जिसके निष्कलुष, पवित्र, निष्कपट चिंतन में
नारी नमस्य, श्रद्धेय
क्योंकि वह माता है
मातृत्व शक्ति है सर्वश्रेष्ठ जगदीश्वर की
ऐश्वर्य, शौर्य, सौन्दर्य प्रेम का माता के
मकरंद-भरा, पीयूष-सरीखा शीतल भी
मातृत्व धन्य
वह शीश न झुकने देता मानव का निराश
वह हाथ थाम लेता है जब
हारा मनुष्य गिरने लगता
संतोष-शांति देता उड़ेल
जिस ठौर विश्व का वैभव देता साथ छोड़
निर्माण-दीप बनकर जलता
जिस ठौर फैलता है विनाश का अंधकार

जितना गहरा
जितना निर्मल
निःस्वार्थ प्रेम मां का होता
उतना गहरा
उतना पावन
निर्झर न विश्व-भर में कोई
वह नारी धन्य कि
जिसकी आँखों में
मनुष्य आँखें खोले
जिसकी वाणी में वह बोले
वह चले सहारा ले जिसका
जिसके शब्दों में खोजे अपने शब्द
और जिसकी पुतली की छाया में
पढ़ लेता मानव-जीवन का उच्चतम पाठ
कर्त्तव्य किसे कहते हैं
क्या है धर्म
और दोनों का पालन
किस प्रकार करना पड़ता

नारी जननी
नारी अंबा
नारी जगदंबा परम पूज्य
मातृत्व बंद्य, आराधनीय
उसका पणार्धं
अनगिनत धर्मगुरुओं की
तुलना में असीम

माता करुणा की मूर्त्ति
वेदना की प्रतिमा
उत्सर्गमयी
सब कुछ कर देती न्योछावर
तैयार मृत्यु-मुख में जाने को रहती है
इसलिए कि उनके रक्तज का
कोई अनिष्ट या अशुभ न हो
अपकार न हो
वह बढ़े
बढ़ाये शक्ति, तेज, यश, गौरव
मानव का, स्वदेश का
और धर्म की रक्षा में
अपना जीवन दे होम
शीश अर्पित कर दे रणचंडी को
पर नहीं राष्ट्र के झंडे को
वह झुकने दे

धारणा यही जीजाबाई के जीवन में
माता के भावों का सुभव्य व्यापार बनी
हुंकार बनी टीलों, टेकड़ियों, ढूहों का
सागर-समुद्र-निर्झर-नदियों की धार बनी

ज्वालामुखियों की लपट, झकोरा झंझा का
विप्लव के नभ का प्रलयंकर अंगार बनी
इतिहास बनी उष्णता रक्त में भरने को
संग्राम-विजेता धन्वा का टंकार बनी

संगीत-गीति-परिकथा-कथा-गाथा-लोरी
आख्यान पुरातन नव-नव मंत्रोच्चार बनी
ललकार बनी प्रतिघातों की, प्रतिरोधों की
पद-मर्दित के प्राणों का हाहाकार बनी

बोधन, संबोधन और निवेदन, आमंत्रण
आह्वान, बुलावा, शंखध्वनि, फुफकार बनीं
उष्णीष बेलबूटों से मंडित रत्नों के
बख्तर, कौक्षेयक, पेशकब्ज तलवार बनी

पूजा समाप्त जब हुई
उठीं जीजाबाई
देखा कि द्वार पर शिवा खड़े
सैनिक बाना था चमक रहा
मानो प्रचंड
विद्युत-प्रकाश हो फूट रहा
नभ से अखंड
मानो निकला हो
अंधकार से रवि भास्वर
मानो मृगेन्द्र हो खड़ा
हिल रहा हो केशर
माता बोली

”वरदान भवानी का यह फूल लिये जाओ
माथे पर इन चरणों की धूल लिये जाओ
देखो देवी की आँखों में पथ को अपने
उस पथ पर कब से बिछे हुए मेरे सपने

मैंने भी सुना बुलावा वह, जिसको सुनकर
तुमने अभियान सजाया, स्वयं सजे सत्वर
तुम चले सिंहगढ़ पर चढ़ने, गढ़ने भविष्य
मैं बहुत दिनों से देख रही हूँ भव्य दृश्य

सर्वदा हृदय में स्वतंत्रता का सिन्धु बहे
हैं तुम्हें चुकाने को ऋण दो, यह याद रहे
पहला ऋण जननी का जिसका पय-पान किया
दूसरा जन्म-भू का जिसने आधार दिया

मैं एक बार फिर कह दूँ देश बड़ा सबसे
देशाभिमान, बलि का संदेश बड़ा सबसे
बंधन स्वदेश का काट स्वतंत्र बनाओ तुम
ऋण भरो एक, पर फल दोनों का पाओ तुम

दासत्व मिटाने को हर व्यक्ति अनीक बने
उत्सर्ग-प्रणेता, नेता, शौय-प्रतीक बने
हर व्यक्ति देश को आगे रख आचरण करे
निर्भय लपटों का महासिंधु संतरण करे

आहुतियाँ पड़तीं तब यज्ञाग्नि सुलगती है
बलि से ही किस्मत किसी देश की जगती है
तलवार साधना की हाथों में, किसका भय
उद्देश्य देश का परित्राण, तब निश्चय जय

तुम जिधर बढ़ो, पग-पग संगठन अशेष रहे
जब खंग उठे, होठों पर जयति स्वदेश रहे
हर रक्त-बूँद से परवशता-मालिन्य धुले
हर शीश-दान से मार्ग नया, नवक्षितिज खुले

मस्तक दे देने का संकल्प सहारा जब
हो स्वयं शक्ति ने सप्रत्याश पुकारा जब
तब अचल तुम्हें बल देंगे, लहक शिखर देंगे
नक्षत्र, विभा के पिंड तेज से भर देंगे

उद्दाम भभक ज्वाला-मंडित तरुवर देंगे
गति और वेग उन्मथित ज्वार-जलधर देंगे
तुम जाते हो, जाओ, प्रकाश संबल होगा
देवी का मन मैं जान रही, मंगल होगा

भूलना न यह उर-उर में बजता तार एक
कण-कण में गुंजित सामासिक झंकार एक
बहती है दिशा-दिशा में अंतधीर एक
भावों को बुला रहा है भावुक प्यार एक“

दादोजी भी आ गये विदा देने उस क्षण
यद्यपि शरीर रोगी, वृद्धावस्था कारण
था स्पष्ट कि पहले थे पुरुष के शोले वे
सन्देह शिवा को संबोधित कर बोले वे

”मैंने आदर भी दिया तुम्हें अनुशासन भी
कुछ छूट, नियंत्रण, कुछ कठोरतम शासन भी
आदेश दिया कैसे काँटों पर चलते हैं
संदेश दिया किस भाँति दीप-सा जलते हैं

अनुदेश दिया कैसे दावानल सुलगाते
कैसे फणिधर को नाथ भोग पर चढ़ जाते
तुम कभी रुक्षता से मेरी कुछ कुम्हलाये
बाधक यदि हुआ कहीं मैं तो तुम उकताये

नरसिंह बनो, तन वज्र बने, फौलाद हिया
बेटे! स्वामिन्! यह सब मैंने इसलिये किया
मैंने था जान लिया तुम युग-निर्माता हो
देशोन्नायक हो, जन-गण-भाग्य-विधाता हो

मैं जान रहा था मार्ग कौन अपनाओगे
मैं जान रहा था किधर, कहाँ तुम जाओगे
अभिभावक का कर्त्तव्य इसलिये कठिन पड़ा
तुम धन्य कि मेरा हस्तक्षेप न तुम्हें गड़ा

तुम जो चेष्टा कर रहे वही श्रेयस्कर है
सब की आस्था, विश्वास, भरोसा तुम पर है
है नियम यही, हर कोई हित सोचे अपना
हर कोई अपने ही सुख का देखे सपना

तुम चले देश की विपद झेलने, विष पीने
तुम चले देश के गहरे घावों को सीने
तुम चले देश का सोया भाग्य जगाने को
तुम चले देश के लिये स्वयं मिट जाने को

जो सूर्य देश को मलिन रखे वह पापी है
जो चाँद देश का दुख न हरे, संतापी है
इतने तारे, नभ में भी आपाधापी है
है सत्य यही नक्षत्र-समूह प्रलापी है

तुम राष्ट्र-पुरुष हो नव्य-भव्य संसार गढ़ो
अंगार-पुरुष हो, कण-कण में अंगार मढ़ो
मेरी इच्छा थी, साथ-साथ मैं भी चलता
बुझने के पहले प्रयानल बन कर जलता

पर अब न सहारा देता है यह जर्जर तन
हाँ, जहाँ रहोगे, साथ रहेगा मेरा मन
अर्जित जो पुण्य किया मैंने इस जीवन में
कल्पना, ध्यान, आध्यान मनन में, चिंतन में

सब का फल तुम पर बार-बार न्योछावर है
यह उषःकाल मंगलमय और शिवंकर है“
जिस क्षण तिलकांकित हुआ शिवा का भव्य भाल
सह्याद्रि आग की लपटों से हो गया लाल