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चतुर्दिक-नीरवता भरी संध्या में / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

चारों ओर शान्ति और नीरवता भरी संध्या में
मुँह में खर पतवार लिए चुपचाप एक मैना उड़ती जा रही है,
परिचित राह पर धीरे-धीरे एक बैलगाड़ी जा रही है
सुनहरी फूस के ढूहों से पटा हुआ है आँगन।

दुनिया भर के उल्लू पुकारते हैं सेमल में,
घास में धरती की सारी सुन्दरता दिखाई दे रही है,
संसार का सारा प्यार हम दोनों के मन में-
आकाश फैला है शान्ति के लिए आकाश-आकाश में।