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चन्द्रातप पर्व / अमरेंद्र

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" अब रही किस बात की चिन्ता है, राधे,
किस तरह से सकल आयुध कर्ण साधे!
काँप जाती हैं दिशाएँ, काल कम्पित,
वायु-जल क्या, नभ-धरा क्या, अग्नि विचलित।

" दौड़ता है रक्त जब उसकी शिरा में,
आग लग जाती है तत्क्षण ही हवा में;
रक्त का आवेग कैसा फूटता है,
जब कभी कोदंड से शर छूटता है।

" ज्यों शिला को ही यतन से काट करके,
कर्ण की काया बनी है, प्राण भर के;
कर्ण की काया कि जिसमें रश्मि दिन की,
ज्यों उजागर हो विभा की राशि, किनकी?

" हाँक देता, तो लगे, ज्यों मेघ गरजे,
विघ्न कोई हो, इशारे से ही बरजे;
धीरता और वीरता का कर्ण मेरा,
दूर है मुझसे बहुत मेरा अँधेरा।

" सोचता था, भाग्य मंे मेरे लिखा क्या,
देखना था क्या मुझे, लेकिन दिखा क्या!
राजकुल, अपने पिता से जो मिला था,
भेद न पाया कोई, ऐसा किला था।

" वह बिखरता जा रहा था सामने में,
शेष सब कुछ हो रहा था नापने में;
राजकुल वह वंश मेरा छुट रहा था,
किस तरह मैं साँस रहते घुट रहा था।

" मुझमें शोणित राजकुल का है उमड़ता,
पर यही लगता, निरन्तर मन में जड़ता;
मैं वृहत्मन-अंश, सत्या-सत्य हूँ मैं,
मर्त्य था मैं अब नहीं पर मर्त्य हूँ मैं।

" एक ऐसा भय कि जो मुझको डराता,
अन्त कुल का स्यात अब है निकट आता;
वय हुआ संन्यास का पर गोद खाली,
स्यात विधि ने राह मेरी ही निकाली।

" दे दिया है कर्ण-सा सुत, अब कहाँ डर!
फूटता मरु में सुधा का स्रोत निर्झर!
अब कुसुम के भार से है शूल नीचे,
यह वयस मुझ पर नहीं चिन्ता उलीचे।

" राजकुल की नींव हिल कर रुक गई है,
वाम हो कर नियति फिर से झुक गई है;
अंग की यह राजगद्दी, यह सिंहासन,
चाहता हूँ, शीघ्र ही हो कर्ण-आसन!

" और आए दिन सुयश के, अंग के वे,
दीन का यह भाव क्यों अब और सेवे;
कीर्ति जो है अंग की सिमटी हुई-सी,
दीप्त हो दमके अभी से, अब नई-सी.

" चाहता हूँ कर्ण पर अब भार सौपूँ,
जो मिला है अंग का संसार, सौपूँ;
और ऐसी चाह है, तो क्या बताऊँ,
क्या छुपाया आजतक है, जो छिपाऊँ।

" जब भी देखा कर्ण को, कुछ अलग देखा,
हर क्रिया के मूल में संन्यास-रेखा।
राज की आसक्ति देखी न कभी भी,
शून्य में बेसुध भटकता गंधजीवी!

" जब कभी कहता हूँ, जाओ, राज देखो!
कल सँभालोगे जिसे तुम, आज देखो!
दे कहाँ उत्तर! रहा है मौन अक्सर,
जा रहा है पूर्व-सा ही वृद्ध वत्सर।

" और हम चुपचाप बैठें; क्या उचित है?
बीतने को अब वयस भी तो त्वरित है;
क्या कभी है भाव देखा, कर्ण का वह?
जो उसे बाँधे ही रहता खींच अहरह।

" दुर्ग से हो दूर क्या खोजे विपिन में,
देर तक ही; रात में भी और दिन में;
मैं सशंकित आजकल हूँ सोचकर यह,
कर गया कुछ रश्मियों का ही पुरुष वह।

" क्यों नहीं पुर-वेधशाला में सिखाया?
अस्त्रा-कौशल मेघवन में ही बताया?
क्षत्रिय है, सत्ता सँभाले राजहित में;
देश का गौरव कहाँ है, शर नमित में!

" कर्ण का कुछ आचरण मुझको डराता,
एक भय उठता है, मन को बेध जाता;
बात करता वृक्ष से यूँ, ज्यों सगा है,
इस समय में रोग यह कैसा जगा है!


" यह विरागी भाव, क्या है देश-हित में?
उम्र पर संन्यास शोभे, जगविदित में;
चाहता हूँ रास्ता ऐसा निकालूँ,
क्यों न चम्पा का सिंहासन सौंप डालूँ!

" राज में मन लग गया, तो दुख कहाँ है,
तब कहाँ फिर धुंध या फैला धुँआ है। "
चुप हुए अधिरथ सुना कर मन सशंकित,
हो गये थे इस तरह, जैसे सुरक्षित।

एक क्षण राधा रही चुप सुन सभी कुछ
और फिर बोली, " बचा है क्या अभी कुछ?
कुछ नहीं ऐसा कहीं है, मोह-भय है,
इसलिए ही गरल-सा दिखता अमिय है।

" राजगद्दी! ऐसी भी क्या हड़बड़ी है?
कर्ण के आगे अवधि लम्बी पड़ी है;
है समस्या राज की सम्मुख खड़ी है,
पर नहीं क्या राज से विद्या बड़ी है?

" कर्ण ने सीखा है जो कुछ और सीखे,
दिख रहा जैसा अभी कुछ, बढ़ के दीखे;
किस तरह से दीपता है पुत्रा मेरा,
पाँवों के नीचे छुपा है घुप अँधेरा।

" और बढ़ने दो अभी बाहु-वयस को,
एक अँगुली थाम ले हँसते ही दस को!
राज का यह भार कोई और देखे,
भार भारी तो नहीं उतने मही के.

" श्रेष्ठ है नर, जो गुणों से है विभूषित,
वह अधम है, जो नरोचित गुण से वंचित;
राज उसको शोभता है, जो विभासुत,
देवताओं के गुणों से पूर्ण अच्युत।

" कर्ण अच्युत है, विभासुत, पुत्रा मेरा,
देखता हूँ नाथ का है भ्रांत फेरा;
अंग को ऐसा प्रजापालक मिलेगा,
इस धरा से स्वर्ग तक भी आ मिलेगा।

" स्वर्ग का जो कवच-कुण्डल तन पर धारे,
चल रहा क्षत्रित्व जिसके ही सहारे;
जो कलुष दिखने लगा है; तारणा है,
विप्र के सारे गुणों को धारणा है।

" ज्ञान से वंचित सिंहासन मात्रा आसव,
शोर को बनना अभी है भोर-कलरव;
ज्ञान है तो शक्ति का साम्राज्य विस्तृत,
उस किरण, आलोक के बिन भाग्य विरमित।

" शक्ति का संचार केवल, पाप ही तो,
कामना कर ले रहा नर शाप ही तो;
क्या नहीं है ज्ञात घर की ही कथा सब?
घेर लेती है अभी भी उठ व्यथा सब।

" यह सिंहासन, राजगद्दी ज्ञान के बिन,
पीठ पर फुँफकारते-से नाग-नागिन;
मैं नहीं अब चाहती यह अंश मेरा
और भी झेले हृदय का दंश, मेरा।

" राजसत्ता है प्रजाहित, तो सँभाले,
भार भूतल का सभी मिल कर उठा ले;
कर्ण गुरुकुल में रहेगा शिष्य बन कर,
एक दिन आयेगी निश्चित ज्योति छन कर।

" जो भी करना है उसे सब कुछ सँभल कर,
राजकुल में ही रहे, पर व्रात्य बन कर;
कर्ण के यश से धरा यह धन्य होगी,
यह सिंहासन जब दिखेगाµशांत योगी। "

सुन प्रिया की बात अधिरथ-मन शरत-सा,
मोद पूरित कह उठा, दुख से विरत-सा।
ठीक ही तुमने कहा, मैं भी हूँ सहमत,
बन रहे हैं भाव मेरे पुष्प-अक्षत।

" राजगद्दी-राजसत्ता, ज्ञान के बिन,
ज्यों रुधिर का पान करती मत्त डाकिन;
चन्द्रिका बरसेगी, तो रजनी हँसेगी,
किस तरह से कालिमा फिर तो डँसेगी।

" मोह के विष को अभी मैं तेजता हूँ,
कर्ण को गुरु की शरण में भेजता हूँ;
और गुरु भी वह, जगत में अप्रतिम जो,
अंग के गुरुओं में आगे हैं; महिम जो।

" जिनसे शोभा पा रहा मंदार पर्वत,
साधु-सा, गिरि साधना में लीन हो रत;
परशुधारी राम का आश्रम वही है,
ज्ञान से जिनके अखिल उज्ज्वल मही है।

" दर्प क्षत्रियों का किया था धूल, रज-कण,
शक्ति का हो शील से ही योग, यह प्रण;
जब भुजा की शक्ति का हो ज्ञान सेवक,
शील की सारी शिराएंµप्राण धकधक।

" क्यों न जागे तब भला ही ज्ञान का बल,
इस धरा को ज्ञानियों का ही तो सम्बल;
परशुधारी राम का है ज्ञान ऐसा,
ज्यों शरद की पूर्णिमा का चाँद जैसा।

" कल ही लेकर कर्ण को मैं निकल जाऊँ,
रात होने के ही पहले लौट आऊँ!
हाँ, यही अच्छा भी होगा, भोर होले,
रात अपनी लालिमा के पंख खोले।

" रथ चलेगा वायु संग दक्षिण दिशा में,
स्वाप सुन्दर दृष्टि-पथ पर ज्यों निशा में
देखता हूँ श्याम नभ पर भोर का मन,
दृष्टि के जो भी हैं सम्मुख, बहुत पावन। "

मोह मन का छट गया संवाद से है,
प्रेय हो या श्रेय, इसके बाद से है।
शांत है राधा, नहीं अब भ्रांत मन है,
खंजनों को देख नभ से दूर घन है।