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चन्द्र तुम मौन हो / अनुपमा त्रिपाठी

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मैं विकारी ... तुम निर्विकार ...!!
निराकार मुझमे लेते हो आकार ,
रजनी के ललाट पर उज्ज्वल
यूं मिटाते हो हृदय कलुष ,
मैं आधेय तुम आधार ....!!
 
मेरे मन के एकाकी क्षणो को
 तुम ही तो भर रहे हो,
 
बताओ तो -
क्यूँ लगता है मुझे
 
मेरे हृदय के असंख्य अनुनाद,
वो अनहद नाद ,
सुन रहे हो
समझ रहे हो ...!!
तभी तो ..
भीगी हुई चाँदनी सरस बरस रही है
चन्द्र तुम मौन हो,
और ....मेरे निभृत क्षणों को
झर झर भर रहा है
अविदित मधुरता सरसाता हुआ,
बरसता हुआ अविरल,
शुभ्र ज्योत्स्ना- सा
तुम्हारा हृदयामृत .....!!