चप्पल / राजेश जोशी
चल चप्पल
अपन भी चलें बाहर
बाहर जहाँ कोहरा तोड़कर निकली हैं सड़कें
अपनी पीली कँचियाँ फेंककर
मैदान में आ डटा है नीम
बाहर जहाँ तिरछी नँगी तलवार पर चलती
ऊपर जा रही हैं ओस की बून्दें
नँगे पाँव ।
चल चप्पल चलें बाहर
किसने उतारा जानवर का चमड़ा
पकाया किसने उसे सिरके की
तीखी गन्ध के बीच खड़े रहकर ।
किसने निकाला लोहा ज़मीन से
ढाला किसने उसे तार में
किसने बनाईं कीलें
किसने बँटा कपास
तागा किसने बनाया
किसने चढ़ाया मोम
राजा ने तो कहा था —
सारी पृथ्वी पर मढ़ दो चमड़ा
किसने खाया उसकी मूर्खता पर तरस
हुक्मअदूली किसने की
किसने चुना पैरों को
राँपी किसने चलाई
पैर की माप से
किसने काटा सुकतल्ला
चल आज उधर चल
बबूल के काँटों
काँच की किरचों और कीचड़ से
बचाने वाली
तपती सड़क के ताप से
मेरी घुमक्कड़ी में
मेरी थकान की हिस्सेदार ।
मेरी रोज़ी-रोटी से
मेरे आत्मीयों तक
मुझे रोज़ ले जाने वाली
मेरी दोस्त
आज चल उधर
उस बस्ती की ओर
जहाँ हाथ सक्रिय हैं
पैरों की हिफ़ाज़त के लिए
और जहाँ से
नए शब्द प्रवेश करते हैं दुनिया में ।
चल चप्पल
आज चलें उधर ।