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चमक की चोट / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
यह वो रोशनी नहीं जो सुस्त-क़दम आती, बैठ जाती अँधियारे से सटकर
और उसके हाथ की सुई में धागा डाल देती है ।
रेत के कण पर पानी का पानी चढ़ाती वस्तुओं के माथे पर चढ़ी है यह ढीठ चमक
नहीं यह सकुचौहाँ चमक जो एक स्वस्थ मनुष्य के नाखून में होती है
यह तो वो चमक जो एक फूँक में मनुष्य को पॉलिथीन की त्वचा में बदल देती है ।
आधी रात गए जब करवट बदलते कमर में गड़ रही होती है अधपकी नींद की डंठल
उस वक़्त कोई अभागा काँच का केंचुल उतार रहा होता है
फिर हट जाता है साँप की लपलपाती जीभ से मोहक शीशे से दूर
और लौट जाता है चूर उस फाँट में जो अब तक उगी हर सभ्यता में
इन्ही के लिए है ।