कण्टक-पथ में से पहुँचाया चारु प्रदेश
धन्यवाद मैं दूँ कैसे तुझको प्राणेश!
यह मेरा आत्मिक अवसाद?
हुआ मुझे तब चरण-प्रसाद।
छोड़ था तूने मुझपर यह दुर्द्धर-शूल;
किन्तु हो गया छूकर मुझको मृदु फूल।
यह प्रभाव किसका अविवाद?
आती ठीक नहीं है याद।
जी होता है दे डालूँ तुझको सर्वस्व,
न्यौछावर कर दूँ तुझ पर सम्पूर्ण निजस्व।
उत्सुकता या यह आह्लाद?
अथवा प्रियता पूर्ण प्रमाद?
लो निज अन्तर से मम आन्तर-भाषा जान,
लिख सकती लिपि भी क्या उसके भेद महान।
भाषा क्या वह छायावाद,
है न कहीं उसका अनुवाद।
-हितकारिणी, मार्च 1920