भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चरागे़जीस्त बुझा दिल से इक धुआँ निकला / यगाना चंगेज़ी
Kavita Kosh से
चराग़-ए-जीस्त<ref>जीवन-दीप</ref> बुझा दिल से इक धुआँ निकला।
लगा के आग मेरे घर से मेहरबाँ निकला॥
तड़प के आबला-पा<ref>पाँव के छाले</ref> उठ खड़े हुए आख़िर।
तलाशे-यार में जब कोई कारवाँ निकला॥
लहू लगा के शहीदों में हो गए दाख़िल।
हविस तो निकली मगर हौसला कहाँ निकला॥
लगा है दिल को अब अंजामेकार का खटका।
बहार-ए-गुल से भी इक पहलु-ए-ख़िज़ाँ निकला॥
ज़माना फिर गया चलने लगी हवा उलटी।
चमन को आग लगाके जो बाग़बाँ निकला॥
कलाम-ए-
'यास' से दुनिया में फिर इक आग लगी।
यह कौन हज़रते ‘आतिश’ का हमज़बाँ निकला॥
शब्दार्थ
<references/>