चरित्रहीन / रश्मि भारद्वाज
बड़ी बेहया होती है वे औरतें
जो लिखी गई भूमिकाओं में
बड़े शातिराना तरीके से कर देती है तब्दीली
और चुपके से तय कर जाती हैं सफ़र
शिकार से आखेटक तक का
बड़ी अदा से पीछे करती है
माथों पर लटक आए रेशमी गुच्छे
और मुस्कुरा उठती हैं लिपस्टिक पुते होठों से
सुनकर ज़हर में भिगोया सम्बोधन ‘चरित्रहीन’
बड़ी भाग्यशीला होती हैं वे औरतें
जो मुक्त हैं खो देने के डर से वो तथाकथित जेवर
जिसके बोझ तले जीती औरतें जानती हैं
कि उसे उठाए चलना कितना बेदम करता जाता है पल-पल उन्हें
मुक्त, निर्बंध राग-सी किलकती यह औरतें
जान जाती हैं कि समर्पण का गणित है बहुत असन्तुलित
और उनका ईश्वर बहुत लचीला है
बड़ी चालाक होती है ये बेहया औरतें
कि जब इनके अन्दर रोपा जा रहा होता है बीज़ दम्भ का
यह देख लेती हैं शाखाएँ फैलाता एक छतनार वृक्ष
और उसकी सबसे ऊँची शाख पर बैठी छू आती हैं सतरंगा इन्द्रधनुष
उन्हें पता है कि जड़ों पर नहीं है उनका ज़ोर
खाद-पानी मिट्टी पर कब्ज़ा है बीज के मालिक का
शाखाओं तक पहुँचने के हर रास्ते पर है उसका पहरा
लेकिन गीली गुफ़ाओं में फिसलते वह ढीली करता जाता है रस्सियाँ
और खुलने लगते हैं आकाश के वह सारे हिस्से
जो अब तक टुकडों में पहुँचते थे घर की आधी खुली खिड़कियों से
सुनते हैं, ज़िन्दगी को लूटने की कला जानती हैं यह आवारा औरतें
इतिहास में लिखवा जाती हैं अपना नाम
मरती नहीं अतृप्त
तिनके भर का ही सही
कर देती हैं सुराख़ उसूलों की लोहे ठुकी दीवारों में
और उसकी रोशनी में अपना नंगा चेहरा देखते
बुदबुदा उठते हैं लोग ‘चरित्रहीन’