भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चलता है तो बेख़ौफ़ ज़मीं पर नहीं गिरता / कुमार नयन
Kavita Kosh से
चलता है तो बेख़ौफ़ ज़मीं पर नहीं गिरता
क्यों नट तनी रस्सी से फिसलकर नहीं गिरता।
फ़ितरत तो है फ़ितरत ये बदल जायेगी कैसे
दरिया में कभी जाके समंदर नहीं गिरता।
हां धूप में बारिश में भी चलता रहूंगा मैं
जब तक मिरे कदमों पे मुक़द्दर नहीं गिरता।
ये सोच के कुछ ऊंचे मकां वाले हैं नाराज़
क्यों फूस का कच्चा मिरा छप्पर नहीं गिरता।
ग़म ने मिरे मुस्कान से है दोस्ती कर ली
अब अश्क़ कोई आंखों से ढल कर नहीं गिरता।
ये कौन है बच्चों का लहू पी रहा है जो
इतना तो सियासत का सितमगर नहीं गिरता।
जब तक न बहुत सब्ज़ जज़ीरा दिलों का हो
तब तक तो वहां प्यार का लंगर नहीं गिरता।